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भेड़ के पीछे भेड़ न बने

भेड़ के पीछे भेड़ न बने,
"सद्विचार अपनाए, वेद पढ़े और पढ़ाए"

राम रहीम, रामपाल, कुमार स्वामी, राधे माँ, निर्मल बाबा, यह सूची जितनी चाहो बड़ी कर लो। क्या कारण है पाखंड की यह दुकानें रोज खुलती जा रही है? इस कारण एक ही है। वो है मनुष्य का वेद में वर्णित कर्मफल व्यवस्था पर विश्वास न करना। जो जैसा कर्म करेगा उसे वैसा ही फल मिलेगा। यह ईश्वरीय व्यवस्था है। आज इस मूल मंत्र पर विश्वास न कर हर कोई परिश्रम करने से बचने का मार्ग खोजने में लगा रहता है। एक विद्यार्थी यह सोचता है कि गुरु का नाम लेने से उसके अच्छे नंबर आएंगे। एक व्यापारी यह सोचता है कि गुरु का नाम लेने से व्यापार में भारी लाभ होगा। एक बेरोजगार यह सोचता है कि उसकी गुरु का नाम लेने से सरकारी नौकरी लग जाएगी। एक विदेश जाने की इच्छा करने वाला यह सोचता है कि गुरु का नाम लेने से उसका वीसा लग जायेगा। किसी घर में कोई नशेड़ी हो तो घर वाले सोचते है कि गुरु के नाम से उसका नशा छूट जायेगा। अगर किसी का कोई महत्वपूर्ण काम बन भी जाता है।  तो वह उसका श्रेय गुरु के नाम लेने को देता है। न कि अपने पुरुषार्थ को, अपने परिश्रम को देता है। यही प्रवृति अन्धविश्वास को जन्म देती है। एक दूसरे की सुन-सुन कर लोग भेड़ के पीछे भेड़ के समान डेरों के चक्कर काटना आरम्भ कर देते है। गुरु को ईश्वर बताना आरम्भ कर देते है। एक समय ऐसा आता है कि तर्क शक्ति समाप्त हो जाने पर गुरु की हर जायज़ और नाजायज़ दोनों कथनों में उन्हें कोई अंतर नहीं दीखता। वे आंख बंदकर उसकी हर नाजायज़ मांग का भी समर्थन करते हैं। ऐसा प्राय: आपको हर डेरे के साथ देखने को मिलेगा। दिखावे के लिए हर डेरा कुछ न कुछ सामाजिक सेवा के नाम पर करता है। मगर जानिए धन की तीन ही गति होती है। एक दान, दूसरा भोग और तीसरा नाश। अनैतिक तरीकों से कमाया गया काला धन बहुत बड़ी संख्या  में इन डेरों में दान रूप में आता हैं। ऐसे धन का परिणाम व्यभिचार, नशा आदि कुकर्म का होना, कोई बड़ी बात नहीं हैं। ऐसे अवस्था में जब यह भेद खुल जाता है। तो मामला कोर्ट में पहुँचता है। सरकार इन डेरों को वोट बैंक के रूप में देखती है।  इसलिए वह इन पर कभी हाथ नहीं डालती। इसलिए सरकार से इस समस्या का समाधान होना बेईमानी कहलायेगी। यही डेरे भेद खुल जाने पर कोर्ट पर दवाब बनाने के लिए अपने चेलों का इस्तेमाल करते है। यही रामपाल के मामले में हुआ था। यही राम रहीम के मामले में हो रहा हैं। पात्र बदलते रहेंगे। मगर यह प्रपंच ऐसे ही चलता रहेगा। इसका एक ही समाधान है।  वह है वैदिक सिद्धांतों का प्रचार-प्रसार। यह आर्यसमाज की नैतिक जिम्मेदारी बनती है। स्वामी दयानन्द आधुनिक भारत में एकमात्र ऐसी हस्ती है जिन्होंने न अपना नाम लेने का कोई गुरुमंत्र दिया, न अपनी समाधी बनने दी, न ही अपने नाम से कोई मत-सम्प्रदाय बनाया। स्वामी दयानन्द ने प्राचीन काल से प्रतिपादित ऋषि-मुनियों द्वारा वर्णित, श्री राम और श्री कृष्ण सरीखे महापुरुषों द्वारा पोषित वैदिक धर्म को पुन: स्थापित किया गया। उन्होंने अपना नाम नहीं अपितु ईश्वर के सर्वश्रेष्ठ नीज नाम ओ३म का नाम लेना सिखाया। उन्होंने अपना मत नहीं अपितु श्रेष्ठ गुण-कर्म और स्वाभाव वाले अर्थात आर्यों को संगठित करने के लिए आर्यसमाज स्थापित किया। स्वामी दयानन्द का उद्देश्य केवल एक ही था। वेदों के सत्य उपदेश  कल्याण हो।  वेदों का सन्देश   अधिक से अधिक समाज में प्रसारित हो। यही एक मात्र मार्ग है।  यही गुरुडम और डेरों की दुकानों को बंद करने का एकमात्र विकल्प हैं|

संकलित ~ साहिल
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  जय वेद जय भारत

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कुल उच्चारण स्थान ~ ८ (आठ) हैं ~ १. कण्ठ~ गले पर सामने की ओर उभरा हुआ भाग (मणि)  २. तालु~ जीभ के ठीक ऊपर वाला गहरा भाग ३. मूर्धा~ तालु के ऊपरी भाग से लेकर ऊपर के दाँतों तक ४. दन्त~ ये जानते ही है ५. ओष्ठ~ ये जानते ही हैं   ६. कंठतालु~ कंठ व तालु एक साथ ७. कंठौष्ठ~ कंठ व ओष्ठ ८. दन्तौष्ठ ~ दाँत व ओष्ठ अब क्रमश: ~ १. कंठ ~ अ-आ, क वर्ग (क, ख, ग, घ, ङ), अ: (विसर्ग) , ह = कुल ९ (नौ) वर्ण कंठ से बोले जाते हैं | २. तालु ~ इ-ई, च वर्ग (च, छ, ज, झ, ञ) य, श = ९ (नौ) वर्ण ३. मूर्धा ~ ऋ, ट वर्ग (ट, ठ, ड, ढ, ण), र , ष =८ (आठ) वर्ण ४. दन्त ~ त वर्ग (त, थ, द, ध, न) ल, स = ७ (सात) वर्ण ५. ओष्ठ ~ उ-ऊ, प वर्ग (प, फ, ब, भ, म)  =७ (सात) वर्ण ६. कंठतालु ~ ए-ऐ = २ (दो) वर्ण ७. कंठौष्ठ ~ ओ-औ = २ (दो) वर्ण ८. दंतौष्ठ ~ व = १ (एक) वर्ण इस प्रकार ये (४५) पैंतालीस वर्ण हुए ~ कंठ -९+ तालु-९+मूर्धा-८, दन्त-७+ओष्ठ-७+ कंठतालु-२+कंठौष्ठ-२+दंतौष्ठ-१= ४५ (पैंतालीस) और सभी वर्गों (क, च, ट, त, प की लाईन) के पंचम वर्ण तो ऊपर की गणना में आ गए और *ये ही पंचम हल् (आधे) होने पर👇* नासिका\अनुस्वार वर्ण ~

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