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(हास्य काव्य )
अंधे आंधी का ब्याह
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अंधी - अंधे की है शादी
सिगरे गाँव में फिरी मुनादी
आई बरमाला की बारी
बिटिया को लाई महतारी|
दूल्हे राजा ने अस कीन्हा
सास के गर माला धर दीन्हा
पास में फोटो ग्राफर आया
बहू ने झट माला पहनाया|
हंस ने लागे लोग लुगाई
गई तालियाँ खूब बजाई
फूलापेट हंसी के मारे
लगे ठहाके लोटे सारे|
दांत निपोरन लगे बराती
रोक न पाये हंसी घराती
जैसे तैसे भांवर पारे
चांद ढला औ छुप गये तारे|
रश्म कलेऊ का फिर आया
दूल्हे को सादर बैठाया
थाली परस सामने आई
दूध परोस गई भौजाई|
कहा सभी ने भोजन पावो
एक बिलाव चुपके से आओ
बैठ पास में खा गया खाना
सबने चालू किया बताना|
छुपा के दूल्हा बोला बीती
यही है अपने घर की रीती
बकरी मूत गई थाली में
डोल दिया सब कुछ नाली में|
सास दूध फिर डारन लागी
दूल्हे के उर लागी आगी
उठा के पीढा सर में मारा
टूटी सास के लहू कै धारा |
बहू बियाह के घर में आई
रही बात यह घर घर छाई
घटना यह सब दुहराते है
लोटपोट सब हो जाते है ||
जागेश्वर प्रसाद निर्मल
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