हास्य
अभिव्यक्ति व भावों के सकारात्मक विचार को अलंकृत या सुन्दर शब्दों से सजाकर यदि सर्जन किया जाए, जिससे सार्थक लय, गति एवं सौन्दर्य पैदा हो, तो वह साहित्य है|
अकसर समाजिक लोकाचार, परम्पराओं, कुरीतियों, बुराइयों और आदतों को क्रमबद्ध पेश किया जाता है तो उसमें हास्य पैदा हो ही जाता है| इसे ही व्यंग्य कहते हैं व्यंग्य हमेशा विकृत और गलत सोच का नही होता|
गहराई से देखा जाए तो हमारे जीवन के सभी क्रियाकलाप में व्यंग्य और हास्य रहता ही है, व्यंग्यकार की पारखी नजर चाहिए कि वह जीवन के सकारात्मक व स्वच्छ स्वस्थ क्रियाकलापों से हास्य पैदा करने वाले क्षणों को चुन ले एवं उसे सकारात्मक रूप से प्रस्तुत करके साहित्य की श्रेणी में आने वाला हास्य बनाए|
*साहिल का प्रथम प्रयास~*
सुबह सुबह मैं हृदयहारिणी के द्वारा जबरन उठाया गया बड़े अलसाए हुए अधखुली आँखों से बाथरूम पहुंचा,
मैने उठाया ब्रश की दाँत माँज लूँ,
निकाला मंजन और थोड़ा सा निकालकर दाँतों में रगड़ना शुरु कर दिया, स्वाद कुछ तिखा सा लगा रोज की तरह मंजन का स्वाद न आया,
आँख पूरी तरह बड़ी बड़ी खुल गयी, देखूँ तो ये कौन सा मंजन हैं देखा तो वो फेसवाॅस नजर आया, तब......
चिल्लायी हुई आवाज को मैं गले में ही दबाया,
मन बोला बेटा ई सब न बताइयो,
नही तो खिल्ली उड़ जाएगी |
मन में हँसा अपनी ही हरकत पर,
बस यही सोचा कि चलो अच्छा है बाथरूम के अंदर हूँ,
जमाने ना कहे बस कि बेअक्ल बंदर हूँ|
आप सब न हँसियों|
डाॅ• राहुल शुक्ल साहिल
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