ॐ卐 प्रसंग प्रेरणा 卐ॐ
एक बार एक आदमी गृहस्थ जीवन से परेशान होकर एक महात्मा जी के पास पहुंच गया। उनके सानिध्य में रहने लगा। उसने महात्मा जी से पूछा कि जीवन में इतना दुख क्यों है गृहस्थ जीवन में मैंने तो किसी का दिल नही दुखाया और अपना कर्तव्य पालन करता रहा, फिर भी परिवार जनों की अपेक्षाएँ मुझसे बढ़ती गयी जो दुख का कारण बनती है। महात्मा जी, ने अति सुन्दर उत्तर दिया, देखो भाई! दुख तो सब सर्वत्र है और सुख भी सब जगह है बस हमें अपनी सोच बदलनी होती है, कि हम सकारात्मक सोच रखकर सुख से जिएँ, सुख के पल को खुशी से जिएँ, अपेक्षाएँ तो मानव जीवन में रहती ही हैं, बस अनावश्यक नही होनी चाहिए।
गृहस्थ जीवन यही तो सिखाता है कि जिससे हमें प्रेम है, स्नेह है, लगाव है, वह हमारी अपेक्षाओं और जरूरतों के लिए बहुत परेशान न हो या हम भी उसकी मदद करें।
दुख के बाद सुख तो आता ही है। काली रात के बाद प्रकाशवान सुबह आती ही है। प्रकृति के नियम सर्वोपरि है।तुम मेरे पास भी तो अपेक्षाओं से ही आये हो क्या परिवार जनों का प्रेम लगाव और अपेक्षायें आपके प्रति यहाँ आने से समाप्त हो गई, नही ?
महात्मा जी की बात सुनकर उसको अपने परिवार की याद आने लगी और वह फिर से घर चला गया और सुखमय पारिवारिक जीवन व्यतीत करने लगा।
धन्यवाद
डाॅ• राहुल शुक्ल साहिल
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