महिला सशक्तीकरण पर व्यंग्य सृजन
अब रोज रोज की लड़ाई
अच्छी लगने लगी
दाल में पड़ी खटाई
अच्छी लगने लगी।
दुकान की भी मिठाई,
अच्छी लगने लगी,
बिस्तर न रहे तो चटाई,
अच्छी लगने लगी।
हुई जब से शादी पिटाई,
अच्छी लगने लगी,
शत्रु से भी अब मिताई,
अच्छी लगने लगी।
खेत की भी जुताई,
अच्छी लगने लगी,
घर की अब तो पुताई,
अच्छी लगने लगी।
नारी सशक्तिकरण पर सकारात्मक सृजन
जब से अपने आप को पहचाना,
उससे भी पहले से माता का साया,
पालन पोषण में बहन ने खिलाया,
संगिनी की तलाश में
एक नया मोड़ आया
हर क्षण पल पल
प्रतिपल मिला
नारी का साया
मोह में ममता की
नेह में निष्ठा की
शाम में सुबह की
छाँव में वफा की
भोली सूरत से
दिल है भर आया
प्रीत में गीत से
मधुर संगीत से
जीवन की माया
प्रभु की काया
जगत नही अछूता
है नारी ही शक्ति
बिन नारी के कभी
अपने आपको न सोच पाया
एहसास की अहमियत
पुरुष की नीयत को
बड़ी देर में समझ पाया
कैसे रच सकती है
सृष्टि बिन नारी
इसी उधेड़बुन में
कुछ जीवन बिताया
प्रेम के आगोश से
मुझमें जोश आया
नारी सशक्तिकरण
तब समझ आया।
डाॅ• राहुल शुक्ल साहिल
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