ॐ卐 प्रसंग प्रेरणा 卐ॐ
एक बार एक आदमी गृहस्थ जीवन से परेशान होकर एक महात्मा जी के पास पहुंच गया। उनके सानिध्य में रहने लगा।उसने महात्मा जी से पूछा कि इतना दुख क्यों है गृहस्थ जीवन में मैंने तो किसी का दिल नही दुखाया और अपना कर्तव्य पालन करता रहा फिर भी परिवार जनों की अपेक्षाए मुझसे बढती गयी जो दुख का कारण बनती है। महात्मा जी ने सुन्दर उत्तर दिया, देखो भाई दुख तो सब जगह है और सुख भी सब जगह है बस हमें अपनी सोच बदलनी होती है, अपेक्षाए तो मानव जीवन में रहती ही है बस अनावश्यक नही होनी चाहिए गृहस्थ जीवन यही तो सिखाता है कि जिसमें हमें प्रेम है वह हमारी अपेक्षाओं औल जरूरतों के लिए बहुत परेशान न हो या हम भी उसकी मदद करें ।
दुख के बाद सुख तो आता ही है। काली रात के बाद प्रकाशवान सुबह आती ही है। प्रकृति के नियम सर्वोपरि है।तुम मेरे पास भी तो अपेक्षाओं से ही आये हो क्या परिवार जनों का प्रेम लगाव और अपेक्षायें आपके प्रति यहाँ आने से समाप्त हो गई, नही ?
महात्मा जी की बात सुनकर उसको अपने परिवार की याद आने लगी और वह फिर से घर चला गया और खुशी से रहने लगा।
धन्यवाद
डाॅ• राहुल शुक्ल साहिल
[18/04 1:52 PM] Rahul Shukla: [20/03 23:13] अंजलि शीलू: स्वर का नवा व अंतिम भेद १. *संवृत्त* - मुँह का कम खुलना। उदाहरण - इ, ई, उ, ऊ, ऋ २. *अर्ध संवृत*- कम मुँह खुलने पर निकलने वाले स्वर। उदाहरण - ए, ओ ३. *विवृत्त* - मुँह गुफा जैस...
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