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बस माहौल में रहकर, देख सुनकर, मैं भी अपनी भाषा को दो साल की उम्र से ही बोलना सिख गया, और विद्यालय में गुरुओं एवं परिवारिक शिक्षा के द्वारा अपनी भाषा को लिखना भी सीख लिया|
कुछ दिन में अन्य विषयों एवं शब्द संकेतों से पाला पड़ा, बस सीखते - सीखते यह महसूस हुआ कि शब्द गंगा, विषय सरिता एवं भाषा सिन्धु में हम डूबते जा रहे हैं, पता नही इसका अंत भी है या नही, पढ़ते- सीखते, डुबकी लगाते 25 वर्ष बीत गए, फिर शुरु हुआ मन, आत्मा एवं हृदय की अन्तर्वेदना को सुनकर उसमें अपने सकारात्मक, सार्थक विचारों को जोड़कर अभिव्यक्त करने का एक शानदार माध्यम जिसे हम कविता के माध्यम से जानते हैं|
शायद किसी ने सच ही कहा कि कविता में शब्दों को पिरोकर सौन्दर्य पैदा करने की कला केवल कवि के पास है और यह गुन भी ईश्वरीय वरदान है, क्योंकि अनुभवी भाषायी ज्ञान एक साहित्यकार की नींव हो सकता है, परन्तु सामाजिक गतिविधियों के प्रति संवेदनशीलता को उद्वेलित होकर शब्द रूप दे देना एवं मानवीय संवेदनाओं के अन्तः स्थल को काव्य में रच देना, एक नैसर्गिक ईश्वरीय वरदान है| कवि के भावों और वेदनाओं को समझकर यदि जीवन में सार्थक/ सकारात्मक परिवर्तन आए, तो कवि की कविता का लेखन सार्थक है|
सकल सरल सचल सुन्दर सुगठित सुमेलित सभी रस से परिपूर्ण शब्दों का सर्जन जो हृदय पटल को रोमांचित करे, मन को प्रसन्न करे, आत्मा को अनुसरण हेतु बाध्य करें एवं भाव को बदलने पर मजबूर करें, वही काव्य है और इसी काव्य को गुणिजन पढ़कर समाज के सुन्दर सकल हितार्थ अनुकरण/अमल करें, तो साहित्य का सर्जन एवं कलमकार की लेखनी सार्थक हो|
काव्य की गरिमा और कवि की महिमा उसके सुन्दर सकारात्मक विचारों पर निर्भर करती हैं|
यदि समाज के व्यवहारिक, सांस्कृतिक, संस्कारिक पक्ष पर परिवर्तन चाहिए, तो कवि का भी अच्छा भावुक और सकारात्मक इंसान होना जरुरी है|
मानवीय संवेदनाओं, व्यवहार और समाज में फैल रही ढ़ेरों कुरितियों को मिटाने के मुख्य उपायों में माता- पिता गुरु के साथ - साथ कवि/साहित्यकार/ कलमकार/ कलमवीरों की भी विशेष भूमिका है|
कवि की महिमा समाज में सर्वोपरि है, बस अभिव्यक्ति अनर्गल न हो, भाव मिश्रित न हो, शब्द अश्लील न हो, काव्यार्थ नकारात्मक न हो, भाषा अति क्लिष्ट न हो, भाषा अस्पष्ट न हो|
✍ लेखन
© डॉ० राहुल शुक्ल 'साहिल'
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