कहानी ~ सोच
उस दिन जाने क्या बात थी, मन बहुत विचलित था| हृदय और मस्तिष्क दोनों एक दूसरे के विरोधी हो उठे,अन्दर ज्वार भाटा आ जा रहे थे, अस्तित्व खतरे में है, यह भाँप मेैने कपड़े पहनें और बिना किसी से कुछ बोले घर से बाहर निकल गया|
गर्मी के दिन थे, करीब चार बजे का समय रहा होगा, पसीने से पूरा शरीर त़र-ब-त़र| कपड़े सब पसीने से भीगे हुए, मैं समझ नहीं पा रहा था कि क्या करूँ क्या न करूँ कि एकाएक डॉ0 राहुल शुक्ल साहिल जी का फोन आ गया, हाय हैलो हुई, फिर एक और मानसिक आन्दोलन छिड़ गया, स्वार्थ और परमार्थ को लेकर गुत्थी उलझती चली गयी, सुलझने का नाम ही नहीं ले रही थी, कभी स्वार्थ - परमार्थ पर हावी, कभी परमार्थ - स्वार्थ पर हावी| बातें जारी थीं, स्वार्थ परमार्थ अपने अपने को सिद्ध करने में लगे थे, कि मेरा एक दोस्त सिगरेट पीते हुए आ रहा था, साहिल दा को बोला तनिक रुकिए ! अभी बात करता हूँ, वह बोले ठीक है हम लाइन पर बने हैं | मैंने अपने दोस्त से पूछा कि कहो श्रीकांत क्या हाल हैं, वह सिगरेट दिखाते हुए बोला एकदम मस्त! एक भाई मिला सिगरेट पिला परमार्थ कर गया, अपना स्वार्थ सिद्ध हो गया | मैं अवाक् खड़ा रह गया ! वह चला गया, मैं फिर सोचता रह गया कि यह श्रीकांत क्या कह गया ?
साहिल दादा से फिर बात शुरू हुई प्रसंग वही, श्रीकांत का मिर्च मसाला और जुड़ गया|साहिल दादा बोले, सरस जी वह सही कह रहा था, किसी के द्वारा किया गया परमार्थ किसी के लिए स्वार्थ बन जाता है, इन दोनों में बस सोच का ही फ़र्क है, कर्म करने के पीछे जो भाव निहित रहता है, वह सिद्ध करता है, कि यह स्वार्थ है या परमार्थ|
साहिल दादा कहे जा रहे थे मैं सुने जा रहा था, उनके व्यक्तित्व का निखार दैदीप्यमान हो रहा था, जो मुझमें प्रकाश और ऊर्जा का संचार कर रहा था| मन को संतुष्टि मिली | साहिल दादा का एक - एक वाक्य बार - बार गूँज रहा था, अपनी ही ज़िन्दगी की पृष्ठभूमि तैयार करो स्वार्थ के लिए नहीं, परमार्थ के लिए, मन से विचलनपन स्वतः ही काफूर हो जायेगा, आप जो हैं, जैसे हैं, जहाँ हैं, सब में नवीनता के दिग्दर्शन कर आनंदित हों, फिर देखिए, परमार्थ ही परमार्थ, स्वार्थ के निशान दुख की कहानी कहते नज़र आयेंगे |
लम्बी बात के बाद फोन कब कट गया पता न चला, पर मन अब प्रफुल्लित था| स्थायित्व अपनी जड़ें जमा चुका था, ज्वारभाटा शान्त हो चुका था| कुछ नया करने की प्यास जाग उठी थी, गर्मी की भीषणता को साँझ की हवा समाप्त कर चुकी थी| पसीना सूख चुका था, ठंडक का एक अजब अहसास अन्दर सुकून पहुँचा रहा था, मैं मंद मंद मुस्कराता हुआ घर की ओर बढ़ा|
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दिलीप कुमार पाठक "सरस"
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