सिसकियाँ
विधा~गीत
आकण्ठ हृदय से निकल गयीं|
सिसकीं होठ सिसकियाँ||
सिसक-सिसक सिसकी कहती|
अँखियाँ बहतीं ज्यों नदियाँ||
बिछड़ गयीं पर तुम तो खुश थीं|
भूल गया बिछड़न गम को||
किन्तु मिलन ये पाया कैसा ?
मिली आँख छलकन हमको||
छला नियति ने चुपके से फिर|
दुख की आ गिरी बिजलियाँ||
सिसक -सिसक सिसकी -----------
लिपट लिपट के किससे रोती|
गया बीत कुछ छुटपुट में||
जीवन साथी वो छोड़ गया |
फिर यादों के झुरमुट में||
दो कलियों की मुस्कानों से|
महकीं घर आँगन गलियाँ||
सिसक -सिसक सिसकी---------
दुख देने वाले ने देखा|
ये खुश कैसे रहता है ?
हर एक दृष्टि मम यौवन पर|
चुभन हृदय बस सहता है ||
गिरीं टूट संबंध टहनियाँ ||
नोंच खरोंच घृणा घड़ियाँ |
सिसक -सिसक सिसकी---------
माना समझौता जीवन है|
पर कुछ अपना भी मन है||
लता आश्रय एक चहाती |
चाहत की बस तड़पन है||
दुख बहुत बड़ा हार न हिम्मत|
कहतीं जब तब आ सखियाँ||
सिसक -सिसक सिसकी--------
दिलीप कुमार पाठक "सरस"
गिरिधारी छंद
112 111 122 112
मतभेद जगत में है छलना||
मम हाथ पकड़ माता चलना||
नित नैनन विधि सोहे समता|
पलना मन ललना माँ ममता||
सब रूप जगत को है निरखो|
सच जानहुँ सब धोखो मन को||
सब जानत वह माता मन की|
गति है सुर लय है जीवन की||
दिलीप कुमार पाठक सरस
गीत~10+10,माँ
इत उत नित कहती,लल्ला है मेरो|
ओ मइया मोरी, बालक मैं तेरो||
लला बड़ो नटखट, झपटत है झटपट|
करै खूब खटपट, सरक जात सरपट||
झट भागत आवत, तू कसकर पकड़त|
कान खींच मेरे, मोपै तू अकड़त||
फिर डाँट डपट माँ, कहती कुछ खा ले|
पढ़ लिख फिर सो जा, हुआ है अँधेरो|
ओ मइया मोरी, बालक मैं तेरो|~2
मइया की मइया, उनकी भी मइया|
आदि शक्ति जननी , नवइया खिवैया||
चरणों में तेरे,सुख की है छैया|
तुझ बिन ओ मैया, कौन है सुनैया||
आजा ओ माता, लल्ला पुकारता|
भूखो दुलार को, पथ तेरो हेरो||
ओ मैया मेरी, बालक मैं तेरो||~2
दिलीप कुमार पाठक सरस
गज़ल
काफिया- आरे
रदीफ-चला जा
विधान- 122 122 122 122
सभी भूल अपनी सुधारे चला जा।
भली आदतों को निखारे चला जा।।
सदा काम करना प्रभो की दया से।
यहाँ नेक जीवन गुजारे चला जा।।
कभी दुःख आए तू' धीरज न खोना।
बहेगा नहीं बस किनारे चला जा ।।
दिखे जो अँधेरा तुझे इस जहाँ में ।
किसी रोशनी के सहारे चला जा।।
अगर चाहता अपनी मंजिल पे' जाना।
भलाई किए भी बिसारे चला जा ।।
बहारें हैं यहाँ रोज आती रहेंगी ।
चले तो सरल के इशारे चला जा ।।
बिजेन्द्र सिंह सरल
कलाधर छंद
•~•~•~•~•~•~•
विधान - गुरु लघु की पन्द्रह आवृत्ति और एक गुरु |
हिन्दवीर का प्रहार,शत्रु कौ उखाड़ देत|
नेति~नेति है प्रणाम, हिन्द के सुवीर कौ|
हंस~सा विवेक पास,हिन्द विश्व का विजेत|
जान लेत पास आयि, नीर और क्षीर कौ||
पाक~चीन रोज~रोज, आँख हैं दिखात भीरु|
दाँत तोड़ पेट फाड़,मेटि हौ लकीर कौ||
आँख दोउ फोड़फाड़,हाथ~पाँव तोड़ताड़|
चीरफाड़ फेंकि देउ, शत्रु के शरीर कौ||
दिलीप कुमार पाठक सरस
गज़ल
1222 1222 1222 1222
तुम्हारी याद आती है
चले आओ चले आओ।
बहुत हमको सताती है
चले आओ चले आओ ।।
बिताये साथ जो लम्हें
न भूले पेड़ का झूला ।
वही डाली बुलाती है
चले आओ चले आओ ।।
घनीं वो छाँव बागों की
छिपी पत्तों में है कोयल ।
सुरीला गीत गाती है
चले आओ चले आओ ।।
हुआ वीरान ये गुलशन
बचें हैं खार ही केवल ।
कली अब रह न पाती है
चले आओ चले आओ ।।
बड़े बेदर्द हो बैठे
सभी वादे भुलाये हैं ।
हमारी जान जाती है
चले आओ चले आओ ।
गज़ल
वज़्न~2122 1212 22
क़ाफ़िया~आर
रदीफ़~कर लें क्या
है हसीं रात प्यार कर लें क्या|
नैन से नैन चार कर लें क्या ||
देखता मैं रहा खड़ा राहें|
चाँद का इंतजार कर लें क्या||
देर कितनी हुई न पूछो तुम|
पास आ फिर विचार कर लें क्या||
लब तलबगार हो गये तेरे|
प्यार अब बेशुमार कर लें क्या||
पास आओ करीब बैठे तुम|
जीत को कंठ हार कर लें क्या||
है सरस आज भी हजारों में|
ओ बहारों निखार कर लें क्या||
दिलीप कुमार पाठक सरस
गज़ल
वज़्न~2122 1212 22
क़ाफ़िया~आर
रदीफ़~कर लें क्या
है हसीं रात प्यार कर लें क्या|
नैन से नैन चार कर लें क्या ||
देखता मैं रहा खड़ा राहें|
चाँद का इंतजार कर लें क्या||
देर कितनी हुई न पूछो तुम|
पास आ फिर विचार कर लें क्या||
लब तलबगार हो गये तेरे|
प्यार अब बेशुमार कर लें क्या||
पास आके करीब बैठे जो|
जीत को कंठ हार कर लें क्या||
है सरस आज भी हजारों में|
ओ बहारों निखार कर लें क्या||
दिलीप कुमार पाठक सरस
गज़ल
2122 1212 22
दिल की' खाली बजार कर लें क्या |
हूँ निकम्मा उधार कर लें क्या ||
सिर्फ रोटी मिली न सब्जी है|
आप को ही अचार कर लें क्या||
झूठ मीठा मिला अभी बोला|
सत्य को राज़दार कर लें क्या||
लब पे' आयी नहीं हँसी कबसे|
बात हर नाग़वार कर लें क्या||
और चिकचिक पसन्द अब न मुझे|
तीन दो पाँच यार कर लें क्या||
है नज़र भी कटार सी तेरी|
दिल के' ये आर पार कर लें क्या||
चूम ली जब खिली कली सोचा|
ये ख़ता बार बार कर लें क्या||
ये हमारा हिसाब है सारा|
सब सरस तार तार कर लें क्या||
दिलीप कुमार पाठक सरस
ग़ज़ल का विश्लेषण –(कुछ नए सदस्यों के लिए)_
ग़ज़ल शेरों से बनती हैं। हर शेर में दो पंक्तियां होती हैं। शेर की हर पंक्ति को मिसरा कहते हैं। ग़ज़ल की ख़ास बात यह हैं कि उसका प्रत्येक शेर अपने आप में एक संपूर्ण कविता होता हैं और उसका संबंध ग़ज़ल में आने वाले अगले पिछले अथवा अन्य शेरों से हो, यह ज़रूरी नहीं हैं। इसका अर्थ यह हुआ कि किसी ग़ज़ल में अगर २५ शेर हों तो यह कहना ग़लत न होगा कि उसमें २५ स्वतंत्र कविताएं हैं। शेर के पहले मिसरे को ‘मिसर-ए-ऊला’ और दूसरे को ‘मिसर-ए-सानी’ कहते हैं।
मत्ला-
ग़ज़ल के पहले शेर को ‘मत्ला’ कहते हैं। इसके दोनों मिसरों में यानि पंक्तियों में ‘क़ाफिया’ होता हैं। अगर ग़ज़ल के दूसरे सेर की दोनों पंक्तियों में भी क़ाफिया हो तो उसे ‘हुस्ने-मत्ला’ या ‘मत्ला-ए-सानी’ कहा जाता हैं।
क़ाफिया-
वह शब्द जो मत्ले की दोनों पंक्तियों में और हर शेर की दूसरी पंक्ति में रदीफ के पहले आये उसे ‘क़ाफिया’ कहते हैं। क़ाफिया बदले हुए रूप में आ सकता हैं। लेकिन यह ज़रूरी हैं कि उसका उच्चारण समान हो, जैसे बर, गर तर, मर, डर, अथवा मकां, जहां, समां इत्यादि।
रदीफ-
प्रत्येक शेर में ‘क़ाफिये’ के बाद जो शब्द आता हैं उसे ‘रदीफ’ कहते हैं। पूरी ग़ज़ल में रदीफ एक होती हैं। कुछ ग़ज़लों में रदीफ नहीं होती। ऐसी ग़ज़लों को ‘ग़ैर-मुरद्दफ ग़ज़ल’ कहा जाता हैं।
मक़्ता-
ग़ज़ल के आखरी शेर को जिसमें शायर का नाम अथवा उपनाम हो उसे ‘मक़्ता’ कहते हैं। अगर नाम न हो तो उसे केवल ग़ज़ल का ‘आख़री शेर’ ही कहा जाता हैं। शायर के उपनाम को ‘तख़ल्लुस’ कहते हैं। प्रो0 वसीम बरेलवी साहब की इस ग़ज़ल के माध्यम से अभी तक ग़ज़ल के बारे में लिखी गयी बातें आसान हो जायेंगी।
तुम्हें ग़मों का समझना अगर न आएगा
तो मेरी आँख में आंसू नज़र न आएगा
ये ज़िन्दगी का मुसाफिर ये बेवफा लम्हा
चला गया तो कभी लौटकर न आएगा
बनेंगे ऊंचे मकानों में बैठकर नक़्शे
तो अपने हिस्से में मिट्टी का घर न आएगा
मना रहे हैं बहुत दिनों से जश्न ए तिश्ना लबी
हमें पता था ये बादल इधर न आएगा
लगेगी आग तो सम्त-ए-सफ़र न देखेगी
मकान शहर में कोई नज़र न आएगा
'वसीम' अपने अन्धेरों का खुद इलाज करो
कोई चराग जलाने इधर न आएगा
इस ग़ज़ल का ‘क़ाफिया’ अगर, नज़र, कर, घर, इधर, नज़र, इधर हैं। इस ग़ज़ल की ‘रदीफ’ “न आएगा” है। यह हर शेर की दूसरी पंक्ति के आख़िर में आयी हैं। ग़ज़ल के लिये यह अनिवार्य हैं। इस ग़ज़ल के प्रथम शेर को ‘मत्ला’ कहेंगे क्योंकि इसकी दोनों पंक्तियों में ‘रदीफ’ और ‘क़ाफिया’ हैं। सब से आख़री शेर ग़ज़ल का ‘मक़्ता’ कहलाएगा क्योंकि इसमें ‘तख़ल्लुस’ हैं।
बहर, वज़्न या मीटर (meter)
शेर की पंक्तियों की लंबाई के अनुसार ग़ज़ल की बहर नापी जाती हैं। इसे वज़्न या मीटर भी कहते हैं। हर ग़ज़ल उन्नीस प्रचलित बहरों में से किसी एक पर आधारित होती हैं। बोलचाल की भाषा में सर्वसाधारण ग़ज़ल तीन बहरों में से किसी एक में होती हैं-
१. छोटी बहर-
रोशनी से हैं दामन बचाए
कितने खुद्दार होते हैं साए
२. मध्यम बहर–
कुछ इतना देखा है ज़माने में ये तेरा मेरा
के दोस्ती से भरोसा ही उठ गया मेरा
३. लंबी बहर-
मेरी तन्हाईयाँ भी शायर हैं , नज़रे अशआर-ए-जाम रहती हैं
अपनी यादों का सिलसिला रोको , मेरी नींदे हराम रहती हैं
हासिले-ग़ज़ल शेर-
ग़ज़ल का सबसे अच्छा शेर ‘हासिले-ग़ज़ल शेर’ कहलाता हैं।
हासिलें-मुशायरा ग़ज़ल-
मुशायरे में जो सब से अच्छी ग़ज़ल हो उसे ‘हासिले-मुशायरा ग़ज़ल’ कहते हैं।
रानी लक्ष्मीबाई के युद्धकाल का एक भावचित्र ~
विधा~मनहरण घनाक्षरी
-------------💐💐--------------
पीठ लाल को सँभाल,शत्रुदल मध्य घुसी|
बाँधा पीछे है कलेजा, कोई साथी संग ना||
धड़ मुण्ड अंग भंग, यहाँ वहाँ जहाँ तहाँ|
शत्रुरक्त एक चित्र, शेष और रंग ना||
कालिका~सी खलबली, "सरस" मचायी खूब|
दोनों हाथ तलवार, मानों सोहें कंगना||
रणभूमि बीच डटी, मातृभूमि समरूप|
शक्तिपुञ्ज लक्ष्मीबाई, एक है वीरांगना||
©दिलीप कुमार पाठक "सरस"
संस्थापक
जनचेतना साहित्यिक सांस्कृतिक समिति ~226
बीसलपुर पीलीभीत (उ0.प्र.)
राधारमण छंद
111 111 222 112
🙏🏻श्री गणपति स्तुति🙏🏻
-------------- 💐💐----------------
सुधिजन शुचिता सम्बोधक हैं|
गणपति मन प्यारे मोदक हैं||
सब दुख हरते कौतूहल में||
सब सुख सबको देते पल में||
पशुपति पटरानी के ललना|
खलदल बल को आके दलना||
सुन गजमुखधारी है विनती|
तव चरणन हो मेरी गिनती||
बचपन मन के प्यारे तुम हो|
छलबल जग से न्यारे तुम हो||
दुख हर सुख की मंजूषक है|
सब कहत सवारी मूषक है||
तड़फत मछली~सी है कहती|
मम मति अति माया में रहती||
तन मन भव व्याधा आप हरो|
उर सरस उजाला आप करो||
दिलीप कुमार पाठक "सरस"
संस्थापक
जनचेतना साहित्यिक सांस्कृतिक समिति~226
बीसलपुर (पीलीभीत) उ0.प्र.
रंजन छंद
विधान~2111111,2111111,2111111,21122|
चार चरण, दो दो चरण समतुकान्त|
तू अति नटखट, दौड़त सरपट,
आ अब झटपट, राज दुलारे|
पावन मन गुन, मंतर ध्वनि धुन,
होत यजन सुन,आ बबुआ रे||
भावत चितवन, है सब मम धन,
आवत बन ठन, है छवि प्यारी||
अंजन अँखियन,है रस बतियन,
भागत विथियन, चंचलधारी||
©दिलीप कुमार पाठक "सरस"
संस्थापक
जनचेतना साहित्यिक सांस्कृतिक समिति ~226
बीसलपुर पीलीभीत (उ. प्र.)
मत्त सवैया ~छंद
विषय~हार
फिर हृदयताल जब सूख गये,
कैसे आनंद कमल खिलते|
उथले पानी की डुबकी में,
कब हाथों को मोती मिलते||
है थकित पथिक प्यासा आया,
बस प्यास मिटा दुख हरना है |
तुम मीठे पानी का झरना,
प्रतिपल तुमको तो झरना है||
मन टूटा या हारे मन से,
या कह लो जीते जी मरना|
आगे बढ़के कुछ कर देखो,
पथ बाधा से कैसा डरना||
सब कुछ सम्भव है इस जग में,
कुछ करने की मन में पालो|
है हार बुरी हार न मानो,
लो खुशियों की जीत सँभालो||
पल पल बीते धीरे धीरे,
पल पल का कोई मोल नहीं है|
सब समझ रहा संकेतों को,
है आत्मशक्ति की जीत यहाँ||
कुछ काम करो ऐसा जग में,
नित भोर अरुण~सा वंदन हो|
पग पग पर सब पलक बिछायें,
प्रतिपल अभिनव अभिनंदन हो||
🖊🖊🖊🖊🖊🖊🖊🖊
दिलीप कुमार पाठक "सरस
राधेश्यामी/मत्त सवैया~छंद
☘☘☘☘☘☘☘☘
दिन अति प्यारा अक्षय तृतीया,
लीन्हो परशुराम अवतारा|
है तेज धार फरसा हाथों,
जब तब दुष्टों को संहारा||
फरसाधारी तेजवान अति,
खलबल का रक्त बहाया था|
जो ऋषि मुनि को करे प्रताड़ित,
वह फरसा नीचे आया था||
वह दिन सबको याद अभी तक,
जब शिवधनु योद्धा देख रहे|
था सिया वरण का दिन प्यारा,
सब देख भाग्य की रेख रहे||
शिवधनु तो वह शिवधनु ही था,
सब लज्जित होकर बैठ गये|
सबकी मूछें झुकी झुकी सब,
जलके रस्सी सम ऐंठ गये||
सीता देख राम मुस्कायीं,
फिर देखा है उस शिवधनु को|
फिर देखा है पिता जनक को,
मानो यहु वर मेरे मनु को||
फिर छुअत राम के धनु टूटा,
फिर फरसाधारी आ धमके|
फिर खचाखची थी फरसा की,
फिर लखन क्रोध में आ चमके||
🖊🖊🖊🖊🖊🖊🖊🖊
दिलीप कुमार पाठक "सरस"
गज़ल
1222 1222 1222
सजाना है हमें गुलशन चले आओ|
लिए तुम प्यार की फिसलन चले आओ||
हुआ प्यासा लगी आशा बुलाया है|
सुना है झील सा है तन चले आओ||
बड़ी गर्मी मिलन खाती बताया है|
जवानी बर्फ की पिघलन चले आओ||
धड़कने दो अभी अहसास सीने में |
तड़पता हो उधर भी मन चले आओ||
मुझे मंजिल मिलेगी जानता हूँ मैं |
खुदा बनके सरस आँगन चले आओ||
🖊🖊🖊🖊🖊🖊🖊🖊
दिलीप कुमार पाठक "सरस"
मोटनक~छंद
221 121 121 12
मीरा भजती मनमोहन को|
राधा रटती मन के धन को||
पाया जिसने उसके मन को|
तारा उसने उस जीवन को||
💐💐💐💐💐💐💐
तू सोवत में अरु जागत में|
गा आगत के नित स्वागत में||
बातें दुख दें उनसे बचना|
गाएँ सब नूतन~सी रचना||
🖊🖊🖊🖊🖊🖊🖊🖊
दिलीप कुमार पाठक "सरस"
गज़ल
1222 1222 1222
हवाओं ने कहा है ये घुटन कैसी|
कटे उस पेंड़ से पूछो चुभन कैसी||
ख़ता थी उन ख़तो की जो लिखे तुमने|
जवाबी ख़त जलाने में जलन कैसी||
समझ इतनी कि खुद को नासमझ कहती|
मिलन की आग में जलती अगन कैसी||
नहाना झील में उसका क़यामत था|
नज़र में हुस्न की मदिरा मगन कैसी||
कमल की उस कली में जब भरे खुशबू |
महकती फिर जवानी आदतन कैसी||
सरस की प्यास कोई आ बढ़ा जाए|
चली है आज देखो तो पवन कैसी||
🖊🖊🖊🖊🖊🖊🖊🖊
©दिलीप कुमार पाठक "सरस"
गज़ल~1222 1222 1222
रदीफ़ ~आने
क़ाफ़िया~का मिले मौका
कली को मुस्कराने का मिले मौका||
भ्रमर को गुनगुनाने का मिले मौका||
सजी अभिसारिका मिलने चली आयी|
कभी तो आजमाने का मिले मौका||
तपेगा ताप कब तक मैं रहूँ प्यासा|
भरी बारिश नहाने का मिले मौका| |
जवाँ-सी चाँदनी रूठी हुई बैठी|
हँसाने का मनाने का मिले मौका||
समय काटे नहीं कटता अकेला हूँ|
तुम्हें भी तो बुलाने का मिले मौका||
तुम्हारे एक आने से हसीं महफिल|
"सरस" अपना बनाने का मिले मौका ||
🖊🖊🖊🖊🖊🖊🖊🖊
दिलीप कुमार पाठक "सरस"
◆मंजुभाषिणी छंद◆
विधान~[ सगण जगण सगण जगण+गुरु]
(112 121 112 121 2)
13 वर्ण, 4 चरण
[दो-दो चरण समतुकांत]
मन में बसा सरस धाम को सदा|
रसना पुकार प्रभु नाम को सदा||
भज ले सदैव जप ले हरीहरौ|
प्रभु आप नेह कर शीश पै धरौ||
🖊🖊🖊🖊🖊🖊🖊🖊
©दिलीप कुमार पाठक "सरस"
गज़ल
1222 1222 122
रदीफ़~ आ गया है
क़ाफ़िया~ आना
कहाँ किसको निभाना आ गया है|
बड़ा ज़ालिम जमाना आ गया है ||
अँधेरे में चलाओ तीर न ऐसे|
निशाने पर निशाना आ गया है||
हुईं आँखें नशीली लब गुलाबी|
कि साकी को पिलाना आ गया है||
जवानी जब चटकती है महकती|
कली को मुस्कराना आ गया है||
लिफाफे पर चमक होना जरूरी|
नये में फिर पुराना आ गया है||
चलेगा दौर कब तक ये पता क्या|
"सरस" सिक्का जमाना आ गया||
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दिलीप कुमार पाठक "सरस"
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