🙏 जय-जय
व्याकरण वह शास्त्र है , जिसके द्वारा भाषा का शुद्ध , सर्वमान्य और मानक रूप स्पष्ट होता है| शिष्ट और सुशिक्षित लोगों द्वारा निश्चित, प्रयुक्त व व्याकरण सम्मत रूप ; जो कि तर्क संगत हो, को ही भाषा का मानक रूप कहा जाता है|
सीखने के बाद भाषा पर अधिकार इसी शास्त्र से हो पाता है | व्याकरण का ज्ञान प्राप्त कर कोई भी व्यक्ति भाषा का उचित व प्रभावशाली प्रयोग कर सकता है |
भाषा की परिभाषा देते समय यह कहा जाता है कि भाषा एक व्यवस्था है |
जहाँ कोई व्यवस्था होगी, वहाँ नियम भी होंगे और भाषिक व्यवस्था के नियम ही व्याकरण के नाम से जाने जाते हैं |
व्याकरण= वि + आ + करण
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विशेष स्वीकारना करना
कहने का अर्थ है कि जो व्यवस्था विशेष (नियमीकरण) होने से स्वीकृत (भाषा द्वारा) है, वही व्याकरण है | व्याकरण का एक प्रयोजन यह भी है कि वह प्रचलित भाषा का सर्वांगीण विश्लेषण कर नियमीकरण की प्रक्रिया से समाज द्वारा ग्राह्य या सही रुपों का प्रकट करे |
व्याकरण का दूसरा नाम "शब्दानुशासन" भी है । वह शब्दसंबंधी अनुशासन करता है और बतलाता है कि किसी शब्द का किस तरह प्रयोग करना चाहिए । भाषा में शब्दों की प्रवृत्ति अपनी ही रहती है; व्याकरण के कहने से भाषा में शब्द नहीं चलते। परंतु भाषा की प्रवृत्ति के अनुसार व्याकरण शब्दप्रयोग का निर्देश करता है। यह भाषा पर शासन नहीं करता, पर उसकी स्थिति-प्रवृत्ति के अनुसार लोक-शिक्षण करता है ।
व्याकरण के महत्त्व को संस्कृत के इस सूत्र से जानें~
यद्यपि बहु नाधीषे तथापि पठ पुत्र व्याकरणम्।
स्वजनो श्वजनो माऽभूत्सकलं शकलं सकृत्शकृत्॥
(पुत्र! यदि तुम बहुत विद्वान नहीं बन पाते हो तो भी व्याकरण (अवश्य) पढ़ो, ताकि 'स्वजन' (परिजन) 'श्वजन' (कुत्ता) न बने और 'सकल' (सम्पूर्ण) 'शकल' (टूटा हुआ) न बने तथा 'सकृत्' (किसी समय) 'शकृत्' (गोबर का घूरा) न बन जाए ।)
भाषा और व्याकरण का संबंध ~कोई भी मनुष्य शुद्ध भाषा का पूर्ण ज्ञान व्याकरण के बिना प्राप्त नहीं कर सकता। अतः भाषा और व्याकरण का घनिष्ठ संबंध हैं , वह भाषा में उच्चारण, शब्द-प्रयोग, वाक्य-गठन तथा अर्थों के प्रयोग के रूपको निश्चित करता है ।
व्याकरण के विभाग- व्याकरण के तीन अंग निर्धारित किये गये हैं~
1.वर्ण विचार- इसमे वर्णों के उच्चारण, रूप, आकार, भेद आदि के सम्बन्ध में अध्ययन होता है।
2.शब्द विचार- इसमें शब्दों के भेद, रूप, प्रयोगों, उत्पत्ति -व्युत्त्पत्ति इत्यादि का अध्ययन किया जाता है।
3.वाक्य विचार- इसमे वाक्य निर्माण, उनके प्रकार, उनके भेद, गठन, प्रयोग, विग्रह आदि पर विचार किया जाता है।
जहाँ तक साहित्य सर्जना का प्रश्न है तो बिना समुचित व्याकरण- ज्ञान के हमारा उतकृष्ट लेखन भी प्रभावहीन हो जाता है | जब हमें विधिक व्याकरण के व्यवहार का ज्ञान होगा तो हमारी अभिव्यक्ति (गद्य-पद्य के किसी भी रूप में) न केवल प्रभावी होगी , बल्कि प्रेरक व चिरकाल तक मार्गदर्शन भी करेगी | अत: हमें सप्रयत्न सीखना चाहिये कि "वर्ण (भेद प्रकारादि सहित, ताकि सही लिखा जा सके), शब्द (तत्सम, तद्भव, देशज, विदेशज, रूढ़, योगरूढ़, यौगिक, संधि, समास, उपसर्ग, प्रत्यय व विकारी (संज्ञा, सर्वनाम, विशेषण व क्रिया), अविकारी (क्रियाविशेषणादि) के साथ-साथ विराम-चिह्नों से लेकर रचना कौशल तक" किस प्रकार हम अपनी कलम को तीक्ष्ण व प्रभावी बना सकते हैं |
इन सब बातों को ध्यान में रखकर ही सा० सं० सं० ने 'व्याकरणशाला प्रकोष्ठ' की स्थापना की है, जहाँ विधिवत विद्यालयीय तरीके से ही पठन-पाठन हो रहा है और इसका परिणाम भी प्रतिभागी अपने सर्जन में देख रहें हैं |
शाला में उपस्थिति से लेकर परीक्षा, पुरस्कार , सम्मान इत्यादि के साथ-साथ भाषिक शुद्धता हेतु नित्यप्रति क्रमानुसार 'काठिन्य प्रकरण के अन्तर्गत सुलेख, अनुलेख, श्रुतलेख, कठिन-शब्द, संक्षेपण, पल्लवनादि का अभ्यास किया जाता है |
दैनिक कार्यक्रम में 'विषयकाल में कोई भी अपना भाषिक प्रश्न ; चाहे वह किसी भी बिन्दु का हो, रख सकता है और तत्काल ही समाधान होने लगता है |
सारांश में कहा जाये तो व्याकरण लेखन के संवर्धन के लिये अत्यावश्यक है | अत: हमें व्याकरणशाला की उपयोगिता समझकर लाभ लेना ही चाहिए |
🙏 सादर🙏
© भगत 'सहिष्णु'
वैयाकरण और शालाधीक्षक
सा० सं० सं० व्याकरणशाला
🙏 जय-जय
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