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दिल्ली की यादें

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हमेशा की तरह सुबह 7:00 बजे नींद खुली तो हमारे दिल अजीज भाई नित्यानंद जी का फोन आया था मोबाइल चेक किया तो देखा कि पहले भी कई फोन आ चुका है, तुरन्त बात किया तो उन्होंने कहा कि जिस ऐतिहासिक पुस्तक के प्रकाशन हेतु हम सब लगे हैं उसमें कई सारे रचनाकारों का परिचय और फोटो पुनः चाहिये हमारे साहित्य संगम के मुख्य पदाधिकारियों या  सारे साहित्य रत्नों का एक समूह मंथन है जिसमें हमारे साहित्य संगम के संरक्षक एवं वरिष्ठ समाजसेवी आचार्य भानु प्रताप वेदालंकार जी का सन्देश रात्रि 3:30 पर आया था। मुझे लगा हमारे सभी रत्न दिन रात जागकर प्रथम साझा पुस्तक *एक पृष्ठ मेरा भी*  के प्रकाशन हेतु हर प्रकार के कार्य में लगे हैं। कही मैं पीछे न हो जाऊँ तुरन्त भाई नित्यानंद जी की मदद में लग गया। अंततः 2:00 बजे दोपहर तक सब डाटा (चित्रादि) भेज दिया गया।सारे मंथन रत्न और साहित्य संगम समूह के अन्य रचनाकार पुस्तक के प्रकाशन हेतु जिज्ञासित थे शुरु में 30 फिर 4 और बढ़कर 34 रचनाकारों का साझा संकलन प्रकाशन के लिए पूर्णतः संशोधित हो चुका था।

      ऐतिहासिक प्रकाशन इस लिए लगा क्योंकि इण्टरनेट आनलाइन और वाट्सएप से जुड़कर बिना एक दूसरे से मिलें, प्रकाशक से भी बिना मिले, 34 रचनाकार भारत के विभिन्न प्रदेशों से अपनी रचनायें मोबाइल पर भेजकर सहयोग राशि देकर पुस्तक के रचनाकार बनें वो भी प्रकाशन केवल 20 दिन में सम्पन्न हुआ या ये कह सकते है कि जोर लगा कर किया गया क्योकि तीन मुख्य पदाधिकारी मोबाइल खराब हो जाने की स्थिति से गुजर रहे थे फिर भी हम अथक परिश्रम वाले प्रकाशक आचार्य जी को पाकर सफल हुये एवं उनके संरक्षण में पुस्तक के विमोचन के लिए अखिल भारतीय आर्य महा सम्मेलन में उत्सव ग्राउंड, पटपड़गंज, पूर्वी विस्तार, नई दिल्ली 27 - 28 - 29 जनवरी की तैयारी में लग गये। रेल का टिकट आरक्षित कराया।  साहित्य संगम के रचनाकारों के लिए काव्यपाठ कार्यक्रम का भी मौका था। किसी साक्षात्कार परीक्षा में उपाधि मूल्यांकन का कर्तव्य निभाना था पर भला विचार जो करै भला उसी का होय। उक्त कर्तव्य निरस्त हुआ, दिल्ली  जाने की तैयारी में लग गये व्यर्थ की रोटी कमाओ भागदौड़ में जिन्दगी खत्म न हो तो हम सोचे अपनी धर्मपत्नी को भी ले चले थोड़ा घुमाये देगें वैसे भी आचार्य जी ने रहने और खाने का इंतजाम निशुल्क कर दिया था।

चलो दिल्ली अभियान शुरु हुआ। नई दिल्ली स्टेशन पर कुछ इंतजार के बाद सबसे मुलाकात हुई ऐसा लगा जैसे केवल शरीर ही मिल रहा पहली बार,  आत्मायें तो न जाने कब की जानती है एक दूसरे को।

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