राकेश यादव राज की रचना

ऋतु जाड़े की आयी है ।

दीपोत्सव की दीप बुझ गयी,
ऋतु ने ली अँगड़ाई है।
वर्षा का मौसम बीत चुका,
ऋतु जाड़े की आयी हैं।।
सिहर उठे जब बूढ़े, बच्चे,
ठंड हवा के झोको से।
कपड़े गरम निकल जाते है,
रखे हुए संदूको से।।

आया जाड़े का चतुर्मास,
तन में ठिठुरन लायेगी।
किसी भाँति ठिठुर - ठिठुर कर,
हर रात गुजर जाएगी।।
होता बाधित आना जाना,
पड़ती तेज कुहासा हैं।
दृष्टि अगोचर सा लगता तब,
जाड़े की परिभाषा हैं।।

घिरी कुहासा पड़ते ओले,
सर्द हवा बढ़ जाती है।
बढ़ती मुश्किल मजदूरों की,
याद रजाई आती हैं।।
क्या एहसास उन्हें होगा,
भाषण देने वालो को।
ठंडी हवा कहाँ लगती है,
लिपटे मखमल वालो को।।

सूर्य रश्मियाँ धूमिल पड़ती,
लगता बदली छायी हैं।
धूप सुहाना लगता जानो,
ऋतु जाड़े की आयी है।।
दीपोत्सव की दीप बुझ गयी,
ऋतु ने ली अँगड़ाई है।
वर्षा का मौसम बीत चुका,
ऋतु जाड़े की आई है।।

         राकेश यादव 'राज'

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