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सुख - दुख !

18/05/2016

          सुख - दुख इच्छाओं, अपेक्षाओं, शारीरिक आकर्षण, महत्वाकांक्षाओं और भौतिक सुखों की पूर्ति  हो जाना ही संसार में मनुष्य के लिए सुख का प्रतीक है ।इनके अभाव में मनुष्य अपने आप को दुखी समझता है । महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति न हो तो तो मनुष्य अपने आप को भाग्यहीन एवं दुखी समझता हैसांसारिक जीवन और सुखों की कतार और लगातर क्रम भी मनुष्य को आत्मिक सुख की अनुभूति नहीं करा सकता । सुख और दुख मनुष्य जीवन में दिन और रात की तरह है, बदलते मौसम की तरह है , दुख के बाद सुख जरूर आता है और सुख भी बड़े से बड़े धनवान के पास आजीवन नही रहता। इसीलिए पारिवारिक और सांसारिक दुखों से हम जिस हद तक संघर्ष कर सकें उतना ही करें उससे अधिक लम्बे समय तक किसी भी प्रकार का दुख हमें परेशान नहीं कर सकता या फिर उसके पीछे भी ईश्वर की कोई सतयुक्ति हो सकती है । आध्यात्मिक और आत्मिक शांति ,उन्नति और आनन्द ही परम सुख की नींव है ।

धन मोह माया लोभ,
चिन्ता निराशा क्षोभ,
दुख  के  मूल  कारण,
क्रोध जलन का विक्षोभ ।
सन्तोष सबसे बड़ा सुख है,
प्रेम सबसे बड़ा सुख है,
आत्म ज्ञान की सुख प्राप्ति,
आनन्द ही परम सुख है ।
 तन शक्ति सुख धाम,
सब जन सेवा का काम
संसार सुखों से है भरा,
उन्नत मन में श्री राम ।
काम को बदलें कर्म में,
सम्पत्ति लगे उपकार में,
सुख लायेगा ज्ञान धर्म,
भोग को बदलें योग में ।
                            
- डाॅ•राहुल शुक्ल
      

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