विषय : सिसकियाँ
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माँ को रोते देखा है
बिखरेपन सी महक बिछी है,
अब आँगन-ओसारे में,
सूखे पत्ते टूटे-बिखरे,
हैं कच्चे गलियारे में!
निर्जनता के बीज, वक्त को
घर में बोते देखा है!
कैसे कह दूँ खुश हूँ? मैंने,
माँ को रोते देखा है!
कभी झुंड गौरैयों का,_
जिस घर में चहका करता था!
वात्सल्य का पुष्प जहाँ,
आँचल में महका करता था!
रोज सिसकियों के सूते में,
शाम पिरोते देखा है!
कैसे कह दूँ खुश हूँ? मैंने
माँ को रोते देखा है!
~पं० सुमित शर्मा “पीयूष
संपर्क : 8541093292
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