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कोयल विषय पर रचनाएँ/ समीक्षा(30/08/2018)

[8/30, 12:09] नैना उपाध्याय:  विधा-- गीत

विषय-- कोयल

जागे प्रेम प्रथम नैनन में
          तब तंरग मन होता है।
कोयल के कलरव से सुन्दर
           प्रेम काकली होता है।।

आगे थोड़ी प्रीति बढे़ं जब
            चिन्तन छुअन जरुरी है।
अभिलाषा स्मृति का पलड़ा
               प्रेम भाव की धूरी है।।
इस धूरी की हर गतियों में
                   प्रेम लगायें गोता है
कोयल के कलरव--------------------

जितना समझ सकूँ हूँ इसको
         बस तुलना करूँ गगन से।
इस रहस्य में उलझी हूँ मै
     अब विचलित हूँ तन मन से।।
मै भावुक बन इससे लिपटी
            पकड़ मुझे ये सोता है
कोयल के कलरव-------------------

घेर रही है मुझे चतुर्दिक
       प्रिय की प्रेममयी आभा।
समा रही उर प्रीत तुम्हारी
     रोक सके नहि अब द्वाभा।।
तैर रही मै विरह सिन्धु में
        मन प्रियवर अब रोता है
कोयल के कलरव-------------------

क्षण जगती मै क्षण सो जाती
    विस्मित हो सब चकित खड़ें।
प्रेम छोड़ मै विरह को पीती
              राह निहारें नैन बड़ें।।
तीव्र जलन क्षुधा में होती
           मानों प्रिय अब खोता है
कोयल के कलरव--------------------

*गगन उपाध्याय"नैना"*

[8/30, 12:17] Dr. Rahul Shukla:
🐧   कोयल   🐧

कड़क जोर आवाज सुन, कौआ सभी भगाय|
कोयल मीठी तान से, हृदय मगन हो जाय||

कोयल स्वर प्यारा लगे, अन्तर्मन  खिल  जाय|
मीठी बोली  बोलिए, परिजन खुश हो जाय|

© डॉ० राहुल शुक्ल 'साहिल'
          🙏जय जय🙏

[8/30, 12:36]  इन्दु दीदी:
विषय --कोयल
चौपाई छंद

कोयल लगती सबको प्यारी,
मन की भोली तन की कारी।
कोयल   मीठी   वाणी  बोले,
कानों में  अमरित  रस घोले।

मीठी वाणी    सबको  भाती,
कोयल  मीठा  राग   सुनाती।
कभी न बोलो   कड़वी वाणी,
देवो ने भी     यही   बखाणी।

इन्दू शर्मा शचि
तिनसुकिया असम

       कोयल
कोयल की आवाज सुहानी।
नीलेपन की अमिट निशानी।।
तीतर हैं जिसकी महरानी।
बोले निशदिन मीठी वानी।।

   नीतेन्द्र " भारत "
  छतरपुर मध्यप्रदेश
कोड:-JCMPN3636C

🏵🏵🏵🏵🏵🏵🏵🏵🏵🏵

[8/30, 14:00] सन्तोष कुमार प्रीत:
विषय - कोयल
विधा - गीतिका

कोयल की गान से
कभी पपीहे की बान से।
मन झूम झूम जाए,
मीठी जुबान से ।।

वो जब भी बोलता है,
लब अपना खोलता।
कानो में जैसे कोई,
मिश्री सी घोलता है।।

खिलते है फूल जैसे
भवरों की तान से ।
मन झूम झूम जाए,
मीठी जुबान से ।।

चहका हुआ चमन है,
बहका हुआ सा मन है।
मदहोश हो रहे सब ,
गमका हुआ बदन है ।।

आये वो जैसे कोई
खुशबू की खान से।
मन झूम झूम जाए,
मीठी जुबान से ।।

संस्कार मिले अच्छा,
व्यवहार मिले अच्छा।
जीवन निखर ही जाए,
आधार मिले अच्छा ।।

बढ़ता है मान अपना,
अपनो की मान से ।
मन झूम झूम जाए,
मीठी जुबान से ।।

सूरज ये चाँद तारे,
धरती पवन बहारें।
चलती है सारी दुनिया,
कुदरत के ही सहारे।।

हर शै में वो समाया,
देखो जो ध्यान से ।
मन झूम झूम जाए,
मीठी जुबान से ।।

पानी का बुलबुला है,
जीवन ये जो मिला है।
मिल जाएगा मिट्टी में,
जो फूल सा खिला है।।

फिर 'प्रीत' क्यों भरा है,
कोई गुमान से।
मन झूम झूम जाए,
मीठी जुबान से ।।

सन्तोष कुमार 'प्रीत'
30/08/2018

[8/30, 14:14] सरस जी:
विधा ~गीत
16,14
विषय~कोयल
🐥🐥🐥🐥🐥🐥🐥🐥

दादुर मोर पपीहा बोलें,
रैना प्यासी साजन की|
छिप कोटर में आ बैठ गयी,
मैना कोयल आँगन की||

झूम झूम के घिरीं घटायें,
उमड़ घुमड़ घनघोर छटा|
बाहें खोले भीग रहा है,
है रसाल चितचोर डटा||

मौन यजन है प्रणयवेदि पर,
कोयल चुप है कानन की|
छिपकर कोटर में आ बैठ गयी,
मैना कोयल आँगन की ||

सावन भादौं शरद गये जब,
कोयल कुहु कुहु बोलेगी|
आम्रमञ्जरी फिर महकेगी,
डाली डाली डोलेगी||

खोलेगी जब मन की परतें,
सुरभित कोंपल श्वाँसन की|
छिपकर कोटर में आ बैठ गयी,
मैना कोयल आँगन की ||

मुस्काती सुर्खी गालन की,
  खट्टे मीठे अनुभव-सी|
कहीं गीतिका अधर सजेगी,
पुलकन देगी अभिनव-सी||

मुखरित तन मन हो उठता जब,
कोयल गाती जीवन की|
छिपकर कोटर में आ बैठ गयी,
मैना कोयल आँगन की ||3

🖊🖊🖊🖊🖊🖊🖊🖊
©दिलीप कुमार पाठक "सरस"

[8/30, 14:24] सिद्ध नाथ शर्मा 'सिद्ध': ९२३६६०२९९१

विषय -- कोयल .
विधा --- मुक्तक .

नहीं  रहे  अब बाग बगीचे , कौन भला इससे अंजान !
सुननें को हैं कान तरसते , कोयल की वो मीठी तान !!
आँगन में चिड़ीयों का चीं-चीं , नहीं सुनाई देता आज !
दुर्दिन  के सारे लक्षण पर ,  लेता  नहीं  कोई  संज्ञान !!

सिद्धनाथ शर्मा " सिद्ध "
वाराणसी -- उ० प्र ० .
३००८२०१८ .

[8/30, 15:21] नवीन कुमार तिवारी:

            कोयल
कोयल काली कूकती,अपने साथी खोज ।
मिलती अमुवा बगीयन, किलकित मौरन रोज ।।

अमुवा मौरे खिल रहे , दौड़े पुरंग आज ।
नर नारी जब नाचते,  नाचे  तुरंग राज ।।

कोयल खेले कागसे , अंडज सेती कौन ।
किसके वंशज बढ़ते, देखे आदम मौन ।।

काली काली जो लग रही , कोयल गाती गीत ।
वन उपवन ढूंढती , खोये कबसे मीत ।।

         नवीन कुमार तिवारी अथर्व

[8/30, 15:24] रवि रश्मि:

  कोयल
^^^^^^^^^
विजया मनहरण घनाक्षरी
**********************
8 , 8 , 8 , 8
कोयल काली है पर
    बहुत मतवाली है
        मधुर तान वाली है
            यूँ गाती मंगलगान ।

मोहक सुरीली लय
    है उसे न कोई भय
        पर यह तो है तय
            मन लुभाता है गान ।

एक बार फिर गाओ
    कोयल यह बताओ
        ज़रा हमें समझाओ
            सीखा कहाँ यह गान ।

तूने बोल सीखा कहाँ
    जहाँ सीखा शाला कहाँ
        पायी शिक्षा तूने जहाँ
             यह तानसेन की तान ।

विरह गीत सुनाती
    कभी मोद भरा गाती
        कुहू मन मोह जाती
            कर्णप्रिय ऐसा गान ।

रंग काला गुण वाला
    स्वर है मिसरी वाला
        अमृत घोलने वाला
            संगीतज्ञ का हो भान ।

मेरे पास तो आ जाना
    ले आ गीतों का ख़ज़ाना
        गा तू मधुर तराना
            भर उदासी में प्राण ।

सबमें तू प्यार भर
    ईर्ष्या द्वेष दूर कर
        विधनी को धनी कर
            सबको दे वरदान ।
¤¤¤¤¤¤¤¤¤¤¤¤¤¤¤¤¤¤¤¤

(C)
रवि रश्मि ' अनुभूति '
16.7.2018 , 2:16 पी. एम. पर रचित
¤¤¤¤¤¤¤¤¤¤¤¤¤¤¤¤¤¤¤

[8/30, 17:03] विश्वेश्वर शास्त्री मधुशाला छंद
                        •~•~•~•~•~•
यह एक मात्रिक छंद है, इस में चार चरण होते हैं,
प्रत्येक चरण में ३० मात्राऐं पाईं जातीं हैं, १६,१४
मात्रा पर यति अंत में २ गुरु प्रथम ,द्वतीय चतुर्थ
चरण सम तुकांत होते हैं |
•~•~•~•~•~•~•~•~•~•~•~•~•~•~•~•
कोयल कूजें भँवरा गूँजें ,
                       उपवन हरयाली छाई |
लतिका फूलें अलनी झूलें,
                    पवन सु शीतल पुरवाई ||
घटा घनेरी चहुँ दिशि घेरी,
                     मन मगन मयूरा नाचें |
श्याम झुलावें सखिंयाँ गावें,
                      झूलें   राधा    हर्षाई ||

            विश्वेश्वर शास्त्री 'विशेष'

           
               कोयल

मधुर गान गाती है,मन को जो लुभाती है।
कोयल की कूह-कूह,ऋतुराज लाती है।।

खिल उठती कलियाँ, सजीं कुंज की गलियां।
उपवन खिलकली,गंध बिखराती है।।

भ्रमर गुंजार करे,फूलों का पराग हरे।
वासंती पवन हर,मन भरमाती है।।

विधा - घनाक्षरी

मधुर गान गाती है,मन को जो लुभाती है।
कोयल की कूह-कूह,ऋतुराज लाती है।।

खिल उठती कलियाँ, सजीं कुंज की गलियां।
उपवन खिलकली,गंध बिखराती है।।

भ्रमर गुंजार करे,फूलों का पराग हरे।
वासंती पवन हर,मन भरमाती है।।

कोयल सा हाव-भाव,किन्तु करे काँव-काँव।
नेह भरे उर को कसैला कर जाती है।।

कौशल कुमार पाण्डेय "आस"

आ० भगत भूषण सहिष्णु जी की अद्वितीय समीक्षा
🙏 पटल-पगवन्दन

अकिंचन की ओर से आज की सर्जना पर 'आत्मिक अनुभाव पूरित' शब्द-शलाकाएँ पटल के समक्ष हैं, वरदा होइएगा 🙏

🙏 जय-जय

     प्रथम रचना में 'कोयल' की 'कौए' से तुलनात्मक संस्तुति देते हुए "आ० कौशल पाण्डेय 'आस' जी" का दोहा पटलार्पित हुआ |
     कायिक सादृश्य के अवगुंठनात्मक विडोलन का तिरोभाव व्यवहार और वाचिक, आंगिकादि भंगिमाओं से ही संभव होता है | साधुवाद विप्रवर !
*बाहर    तो    माया   रमे, भीतर रमता राम |*
*जो गुण गहना सीख लो, सुधरे सिगरे काम ||*
~~~~~~~~~~~~~~
     द्वितीयोपस्थिति में *"आ० गगन उपाध्याय 'नैना' जी" का १६-१४ मापनी पर गीत* पटल की शोभा बना | आपने 'कोयल' को प्रेमानुभूतिपरक दर्शाते हुए अपनी स्मृतियों को शब्दों में सहेजा है | विभिन्न भावानुभावों को माध्यम से सुन्दर गीत की सर्जना हुई, इहेतुक साधुवाद !
     गीत में एक ओर जहाँ कतिपय मात्रिक अशुद्धियाँ परिहार चाहतीं हैं, वहीं दूसरी ओर कहीं-कहीं प्रवाह बाधित है; सर्जक ने इसे न केवल अनुभव किया होगा, बल्कि परिमार्जन कर संग्रहणीय भी कर ही लिया होगा | 'प्रेम-काकली' शब्द की व्यंजना गीत-स्नेहक से इतर रही |
*कोयल को धर कमल कह दिया, प्रेम भरा मधुरिम हृद गीत |*
*मानो   भावों    का   सागर   ही, उमड़ उड़ा पाकर मम प्रीत ||*
*प्रीत गंग अनुशीलन पाकर, मधुर सुमति पथ धोता है.........*
कोयल के कलरव....
~~~~~~~~~~~~~~
     तृतीयोपस्थिति में *"आ० डॉ० राहुल शुक्ल 'साहिल' जी" का दोहा द्वय* लोकाचार को दर्शन की तरह प्रस्तुत करता है | 'कोयल व कौए' के माध्यम से लोकरंजन की स्थिति को सहज व सरलतम रूप से प्रकट किया है , साधुवाद !
     दोनों ही दोहों के उत्तर-पदों के दोनों चरणों में कथ्य का पूर्वापर सम्बन्ध सुस्थापित न हो सका | एक सुधि कलम से ऐसा होना तो नहीं चाहिए, तदपि मायावरण से आडोलित आसा होना असंभव भी नहीं; दोनों दोहे पुन: संज्ञान चाहते हैं |
*रूप रंग तजकर यहाँ, देखें  बस व्यवहार |*
*गुण तो दोनों ही महा, मन गहता-परिहार ||*
~~~~~~~~~~~~~~
     चतुर्थोपस्थिति में *"आ० इन्दु शर्मा 'शचि' जी" ने चौपाई छन्द* में अपनी सर्जना पटल पर रखीं | आपने बाहर व भीतर के देशान्तर को इंगित करते हुए संदेश दिया कि लोक में गुणावगुणों के आधार ही स्थान मिलता है, अत: हमें भी इसी मापदण्ड पर अपने व्यवाको नियत करना चाहिए | शब्दों का रूपान्तर सापेक्षता चाहता है | साधुवाद !
*जग यह अखिल ज्ञान आगारा |*
*गुनगाहक   आपुहि   अनुसारा ||*
*कोकिल  कीर  कपोतहि  सारे |*
*संस्कार       उपजावत      वारे ||*
~~~~~~~~~~~~~~
     पंचमोपस्थिति में *"आ० नीतेन्द्र परमार 'भारत' जी ने पुन: चौपाई* में ही विचारोल्लेखन किया | परन्तु कथ्य की भावानुभावों में अनुभूति बाधित रही | लगा कि शिल्प का निर्वहन मात्र हुआ, पर कथ्य की पूर्णता कवि-मन को भी तृषित ही रख गई | तदपि रचनाधर्म के प्रयास का नमन व साधुवाद !
*कथ्य शिल्प अनुभाव महाने |*
*कविता सुधि गर्हित अनुमाने ||*
*भारत भरत  भाव  पुन जाये |*
*कविता   कंचन   हर्ष  मनाये ||*
~~~~~~~~~~~~~~
....शेष रचनावलोकन में अकिंचन असमर्थ है , इहेतुक रचनाकारों से क्षमापना निवेदित है | यायावर भाषक यंत्र ही सुविधाजनक स्थिति में नहीं है | कृपाकांक्षी तो हूँ ही !

🙏 जय-जय


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