न हरिअहि हरि आपहुँ रहे, हरि के अटल प्रमान ||
🌻 🌻🌻 ू🌻🌻🌻🌻🌻🌻
जय
आज री लीक ~
आँधा बनगुळा नपम बापड़ा, केवल कीचगड़ खाय |
आँखें या जया नेता बण्या, माल उड़ाता जाय ;
लेख करमाँ का हार्'या, बचावण पैल्याँ मार'या ||
🌻🌻🌻🌻🌻🌻🌻🌻🌻🌻
करो न बिपरित काम आन लो, बालाजी |
सत की बाक़ी शान मान लो, बालाजी |
पाप भले ही बढ़ता छू ले शिखर यहाँ,
पुण्य प्रखर अवदान जान लो, बालाजी ||
🌷🌷🌷🌹🌹🌹🌹🌷🌷🌷
©भगत
◆तंत्री छंद◆
विधान~
प्रति चरण 32 मात्राएँ,8,8,6,10मात्राओं
पर यति चरणान्त 22 , चार चरण, दो-दो
चरण समतुकांत।
मातु शारदे,हमें सार दे,
जीवन की, हो माँ अभिलाषा|
द्वार तुम्हारा,सबसे प्यारा,
आया हूँ, मैं लेकर आशा||
पथ को भूला, मद में फूला,
आजा माँ,बनकर हितकारी|
चक्षु खोल दो, भाव घोल दो,
दिव्य सदा, है माँ बलिहारी||
वाह्हह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्
~जितेन्द्र चौहान "दिव्य कल क़रम मबम"
ा
[8/29, 07:25] भुवन बिष्ट जी: सुप्रभात वंदन
====================
तंत्री छन्द
विधान- 8,8,6,10 पर यति प्रति चरण 32 ी
तुम ज्ञानी,मैं एक अज्ञानी ।
वंदन करते , नित नित तेरा,
जग पूजे, सब जग के ज्ञानी ।।
डगर पथरिली कितनी चाहे,
राहों से ,अबनहीं घबराना ।
चलें सदा हम, साहस पायें,
लक्ष्य सदा, अब हमें है पाना ।।
. ........भुवन बिष्ट
[8/29, 07:30] इन्दु दीदी: 🙏🙏
दोहा छंद
जीवन यूं न गवाँइये, जीवन है अनमोल।
मीठी वाणी बोलिये,जो भी बोलो तोल।
राग द्वेष को त्यागिये, सीतल करो व्वहार।
काम क्रोध मत पालिये, ये विष का भंडार।
इन्दू शर्मा शचि
तिनसुकिया असम
[8/29, 07:30] एस• के कपूर:
💥💥💥💥💥💥💥
आज का विचार।।।।।।।।।।।
हज़ार टुकड़े होने पर भी दर्पण अपने प्रतिबिम्ब दिखाने की क्षमता को नहीं खोता है। ऐसे ही किसी भी परिस्थिति में हमें अपने अंतर्निहित अच्छे स्वभाव को नहीं खोना चाहिए और न ही उसे प्रतिबिंबित करने की क्षमता को।
हम अपनी अच्छाई को कभी ना खोयें...।
सुप्रभात
शुभ दिवस
एस के कपूर श्री हंस
🧚♀🧚♀🧚♀🧚♀🧚♀🧚♀🧚♀🧚♀
वन्दना
दुखभंजक सुखसृजक तू,तू ममता आगार।
जड़-चेतन को बाँटता,अनविचार तू प्यार।।
तू माया संसार की,तू जग का आधार।
शक्ति प्रकृति में हो रही,माँ तेरी संचार।।
मंगलदायक रूप है,करे सदा उपकार।
धन्य धन्य जग धन्य है, पा जननी का प्यार।।
जननी तो अनमोल है,जन्मभूमि विश्वास।
दोनों बढ़कर स्वर्ग से,माथ नवाये "आस"।।
🌷🌷🌷🌷🌷🌷🌷🌷🌷🌷🌷
कौशल कुमार पाण्डेय "आस"बीसलपुरी
🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺
[8/29, 10:58] सन्तोष कुमार प्रीत:
विषय - फूल
विधा - मुक्तक
कभी खुशी के लिए तो कभी गमी के लिए,
कभी पूजा तो कभी रब की बन्दगी के लिए।
तोड़ने वाले 'प्रीत' दर्दे फूल क्या समझे,
अपनी खुशबू वो लुटाता रहा सभी के लिये।।
सन्तोष कुमार 'प्रीत'
[8/29, 11:00] पं० सुमित शर्मा 'पीयूष':
विषय : पुष्प
🌸🌸🌸🌸🌸🌸🌸🌸
एक फूल खिला बरसों के बाद,
घर के बंजर ओसारे में।
माँ की ममतामय मिट्टी में,
बाबा की बाँहों के क्यारे में।
उस फूल की सुंदरता ऐसी,
जैसे रति ने हो स्वांग भरा।
ज्यों भरी स्निग्धता कूट-कूट,
पंखुड़ियों तक में पराग भरा।
अधरों पर स्मित सी लकीर,
ऐसा कुदरत ने खींचा था।
लज्जा औ लरज की डाली को,
खुद शील-स्नेह ने सींचा था।
इस डर से कि न सूख सके,
औ रहे सुरक्षित डाली में।
माँ-बाप लगे रहते नित-दिन,
उस बेटी की रखवाली में।
ज्यों-ज्यों पौधा वह बड़ा हुआ,
औ तने पे अपने खड़ा हुआ।
तब सख्त-पना था टहनी में,
स्वभाव पुष्प का कड़ा हुआ।
माँ-बाप का नित सौगुण सिंचन
अब तो न तनिक सुहाता था।
घर की ड्योढ़ी से झाँक उसे,
बाहर का पथिक लुभाता था।
एक रोज वह सूर्योदय से पूर्व,
अन्तस् पीड़ा से जाग गई।
छुप-छुप कर के अपनों से ही,
वह पथिक संग फिर भाग गई।
माँ-बाप बिलखते थे निशि-दिन,
अपनी उस पुष्प की करनी पर।
पत्ते तक करते थे विलाप,
सौंदर्य बचा न टहनी पर।
बीत गए दिन शनै: शनै:,
इस बात के अरसे गुजर गए।
उस पुष्प के अल्हड़ बचपन के,
यादें यादों से उतर गए।
तब एक रोज माँ ने देखा,
कुछ तितलियों की आहट पर।
वह फूल विक्षत हो बिखरी थी,
अपने ही घर की चौखट पर।
बेजान हुई, निष्प्राण हुई वह,
अब चौखट पर लेटी थी।
था वेश भिखारन सा उसका,
जो इस घर की ही बेटी थी।
माँ चीख उठी कर हाय-हाय,
यों पीट वक्ष को करतल से।
निर्वस्त्र पुष्प की काया को,
ढँक दिया सुलगते आँचल से।
उस ममता की शक्ति से ऐसी,
पुष्प-देह में आग उठी।
कब तक बेसुध सोई रहती वह?
सिसक-सिसक कर जाग उठी।
वह बोली, माँ मैं छली गई,
इस जगत के मिथ-आकर्षण से।
झूठे विश्वास के धागे से,
मिथ्या के प्रेम-प्रदर्शन से।
मैं तो अपनी ही करनी से,
माँ रोज मौत-एक मरती थी।
नित पथिक की बाहें निष्ठुरता
से मेरे पंख कतरती थी।
एक रोज तो हद हो गई कि जब
उसने भारी मदिरा-मय में।
एक पशु की भाँति बेच दिया,
मुझको जबरन वेश्यालय में।
ज्यों-ज्यों लिबास कतरा जाता,
मैं भी कतरन हो जाती थी।
हर रोज उर्वशी सी सजती,
औ फिर उतरन हो जाती थी।
मैं कतरा-कतरा हुई थी माँ,
एक रोज जो आई शामत थी।
उस होनी का होना सचमुच
माँ मेरे लिए कयामत थी।
उस कोठे की एक कोठर में,
मुझको बेहोश कर चले गए।
दस-बीस भेड़ियों के सम्मुख,
मुझको परोस कर चले गए।
उन भूखे सभी दरिंदों ने,
सब हदें पार कर डाली माँ।
कर गए चीथड़े अस्मत के,
सब तार-तार कर डाली माँ।
दस दिन भूखा-प्यासा रक्खा,
जब अदा बची न करवट पर।
तब मार-पीट कर फेंक गए,
मुझको मेरे ही चौखट पर।
किस मुँह से अब माफी माँगूँ,
माँ शब्द मेरे लड़खड़ा रहे।
माँ छोड़ दो मेरी लाश यहीं,
यह चौखट पर ही पड़ा रहे।
मैंने खुद का तक न सोचा,
मैं कितनी बड़ी अभागी हूँ?
अब सदा के लिये सोने दो,
सौ बार तो मरकर जागी हूँ।
कुछ बोलो माँ आखिरी बार,
अब तुम्ही को सुनना चाहूँ मैं।
लोरी ही चलो सुना दो न,
एक नींद ही बुनना चाहूँ मैं।
कुछ पल तक न आवाज हुई,
न हुआ हवा का कोई असर।
दो लाशें अब थी पड़ी हुई,
दोनों चौखट के इधर-उधर।
✍✍✍✍✍✍✍✍
रचनाकार : पं० सुमित शर्मा 'पीयूष'
संपर्क : 7992272251
Code : JCBRP2235P
[8/29, 11:17] बृजमोहन साथी जी:
मुक्तक
बहर - 212, 212 ,212 ,2
हार जीवन से हरगिज न मानो ,
फूल पतझड़ में खिलते मिले है ।
खुद को काबिल हमेंशा समझना ,
बेवजह लोग जलते मिले है ।।
ये खुशी जिदंगी का है मोती ,
इसको माला में हरदम पिरोना ।
मत कभी स्वार्थी होना साथी,
लोग स्वारथ में छलते मिले है ।।
🌻🌻🌻🌻279🌻🌻🌻
कवि बृजमोहन श्रीवास्तव "साथी"डबरा
[8/29, 11:36] नैना उपाध्याय:
विधा --गीत
विषय -- फूल /पुष्प/ कुसुम/
चले आओ चले आओ
तुम्हें दिल ने पुकारा है
प्रिये ये प्रीत सच्ची है
यहीं दिल का सहारा है
स्वरों में दे लहर मैं तो
मधुर स्वप्नों सी बन जाऊँ
पवाका प्रेम का आये
प्रिये उरबध्द हो जाऊँ
मेरे उर के तरंगों ने
प्रिये तुमको पुकारा है
प्रिये ये प्रीत---------------------------
प्रथम छूकर किरण जब भी
ये कलियाँ मुस्कराती है
प्रथम है प्रात का बेला
कुसुम भी खिलखिलाती है
प्रिये अनुरागिणी मैं तो
नहीं कोई पवारा है
प्रिये ये प्रीत---------------------------
कलूटी कोकिला देखो
मुझे हर छण जलाती है
खूरचकर कूक से अपने
कलेजे को सताती है
पुराना बैर है मानो
नहीं कोई किनारा है
प्रिये ये प्रीत---------------------------
प्रिये दिन-रात ये पपिहा
विरहिणी को सताते है
नहीं चुपसन्धि है चातक
यहीं उत्सव मनाते है
प्रिये जो काम डरता था
चुनौती दे बुखारा है
प्रिये ये प्रीत---------------------------
*गगन उपाध्याय"नैना"*
[8/29, 12:55] सिद्ध नाथ शर्मा 'सिद्ध'
विषय -- फूल , पुष्प , ग़ुल .
विधा --- गीतिका .
चाहे जितना भी श़िकवा गिला कीजिए !
हाँ मगर हँस के सबसे मिला कीजिए !!
जिन्दगी चार दिन की जियें श़ान से !
हर सुबह शाम ग़ुल सा खिला कीजिए !!
कौन तेरा कहाँ कब मददगार हो !
चुटकियाँ मत किसी की लिया कीजिए !!
फूल के काँटे हर दम पड़ोसी रहे !
आप इनकी हिफ़ाज़त किया कीजिए !!
भौंरे, तितली सा ग़ुल से लिपटते रहें !
प्यार का यूँ शुरू सिलसिला कीजिए !!
सिद्धनाथ शर्मा " सिद्ध "
वाराणसी - उ० प्र० .
२९०८२०१८
🌺 फूल / पुष्प 🌺
जवानी अपनी जिन्दगानी अपनी,
टूटता हूँ टूट जाता हूँ तोड़ा जाता हूँ,
मरता हूँ खपता हूँ समर्पित हो जाता हूँ,
सड़ता हूँ गलता हूँ पानी में बह जाता हूँ ,
पुष्प हूँ मैं ईश्वर की प्रार्थना में काम आता हूँ,
खुशी मिलती मुझे कि सबको मुस्कुराहट सीखाता हूँ|
पौधे से टूटकर रोता हूँ मैं,
हाथों में आकर सोता हूँ मैं,
बिना दर्द के दिल टूट जाता है,
अपनी ही माँ को खोता हूँ मैं,
फूल हूँ प्रेमी को समर्पित होता हूँ मैं,
मिलती है खुशी जब दो दिलों को मिलाता हूँ मैं|
बागों में उगता हूँ ,
कलियों से बनता हूँ ,
वीरों पर चढ़ता हूँ ,
शहीदों को नवाजा जाता हूँ मैं,
महापुरूषों के सम्मान में प्रसून
सहर्ष समर्पित हो जाता हूँ मैं|
जन्म ही समर्पित जीवन प्रदर्शित,
हर खुशी में शामिल महक समर्पित,
प्रसन्नता मोहब्बत विरह और मिलन,
सुमन की खुशी परमात्मा हो दर्शित,
तरूण हूँ कुसुम हूँ वृद्ध होता नही,
प्रेरणा और प्रेम सबका बन जाता हूँ मैं|
🌺💐🌹🌸🌻🌸🥀🌹🎋🌱🌴
©डॉ० राहुल शुक्ल 'साहिल'
फूल,पुष्प,कुसुम
शोभित नाना फूल है , महके उपवन बाग़ ।
तोड़क बन बन तोड़ते ,सनके माली जाग ।।
बाग रखे रखवार से ,आँख झोंक ये धूल ।
रहे लोग किलक दिखते ,महक रहे जो फूल ।।
फूल खोज कबसे रहे, बने हार जो आप ।
हार चढ़ा पूजन करें , उतर गये सब पाप ।।
नवीन कुमार तिवारी
[8/29, 13:43] भुवन बिष्ट जी
विषय=पुष्प/फूल
हम तो सदा ही मानवता के दीप जलाते हैं।
बनकर पुष्प सदा ही मुस्कराहट लाते हैं।।
हार मानकर बैठते जो कठिन राहों को देख।
हौंसला बढ़ाकर उनको भी चलना सिखाते हैं।।
कर देते पग डगमग कभी उलझनें देखकर।
मन में साहस पुष्प लिये फिर भी मुस्कराते हैं ।।
मिल जाये साथ सभी का बन जायेगा कारंवा।।
बगिया के फूल हम एकता की माला बनाते हैं।।
फैलायें आओ मानवता को मिलकर चारों ओर,
दुनियां को अपनी एकता आओ हम दिखाते हैं,
. .. ...भुवन बिष्ट
रानीखेत (उत्तराखण्ड)
[8/29, 14:29] कौशल पाण्डेय आस:
पुष्प/फूल(🌹/🌺)कुसुम/सुमन
विधा - असंबधा छंद
^^^^^^^^^^^^^^^^^^
फूलों सा होता मन सरस लगे प्यारा।
आओ गायें गीत यह जग बने न्यारा।।
बोलें मीठे बोल सरल सब हो जायें।
मंचों पे सम्मान सहज सब ही पायें।।
कौशल कुमार पाण्डेय "आस"
[8/29, 14:50] एस• के कपूर:
आज का विषय।।।।।।।।
फूल।।।।पुष्प।।।।।।।।।।
।।।।।।।।मुक्तक।।।।।।।।
पथ में जो सचेत करे वह
तो शूल होता है।
पर रुक जाये डर कर वह
तो भूल होता है।।
भूल कर भी शूलों से मत
घबराना तुम कभी।
परिश्रम वृक्ष का परिणाम
तो फूल होता है।।
रचयिता।।।।एस के कपूर
श्री हंस।।।।।बरेली।।।।।।
मोब।।।। 9897071046
8218685464।।।।।।।।
[8/29, 14:52] इन्दु दीदी:
विषय--पुष्प
मैं पुष्प हूँ
कभी देव के शीश पे चढ़ता,
कभी उतारा जाता हूँ ।
कभी मंदिर और देवालय ,
झालर लटकाया जाता हूँ ।
कभी अय्याशी के हाथो में,
गजरा बन लहराता हूँ ।
कभी कामिनी के बालों की,
वेणी में गूंथा जाता हूँ ।
पर मेरी भी अभिलाषा है,
मैं भी भारत का लाल बनूं।
जहाँ पर विजयी होय तिरंगा,
उन वीरों की जयमाला बनू।
इन्दू शर्मा शचि
तिनसुकिया असम
[8/29, 14:59] परमार जी:
🏵🏵🏵🏵🏵🏵🏵🏵🏵🏵
मुक्तक
जीवन में फूलों की बहार हो जाये।
रिमझिमी बारिस की फुहार हो जाये।।
चले नेक पथ पर पथिक हो भारत सा।
हर घर में नव नूतन त्यौहार हो जाये।।
नीतेन्द्र सिंह परमार " भारत "
छतरपुर ( मध्यप्रदेश )
कोड:-JCMPN3636C
🏵🏵🏵🏵🏵🏵🏵🏵🏵🏵
मन में कोमल भाव पुष्पसम पलते हैं।
देख तुम्हारा रूप मन - मधुप छलते हैं।।
पनघट पर आ जाना विरह सताये जब,
मन्द पवन के झोंकों से मन हिलते हैं।।
जेठ दुपहरी सी यादें तड़पाती हैं,
रातों के सूनेपन में तन जलते हैं।।
मुर्झाए फूलों सा तन बन जाता है,
आँखों में आँसू के बादल पलते हैं।।
"आस" ख्वाब की दुनियां बेकल देखी है,
चुपके - चुपके दर्द अश्रु बन ढलते हैं।।
कौशल कुमार पाण्डेय "आस बीसलपुरी'
[8/29, 16:16] कौशल पाण्डेय आस:
गीतिका -
फूल सभी के मन को भाये
उपवन की जो शान बढा़ये।
भौरों का जो हृदय लुभाये।।
जन जन के मन को हर्षाये।
मादक गंध सदा बिखराये।।
चम्पा गेंदा और चमेली,
फूल सभी के मन को भाये।
फूलों का सरताज बना जो,
वो गुलाब का फूल कहाये।
खूनी रंग हृदय का द्योतक,
प्रीत चिन्ह इससे बन पाये।
पंखुड़ियाँ कोमल होती हैं,
तनिक ठेस से तन बिखराये।
शूल सहायक बन रहते हैं,
व्यर्थ न कोई इसे सताये।
पुष्पों सम उर भी है अपना,
ठेस नहीं कोई सह पाये।।
कौशल कुमार पाण्डेय "आस"
[8/29, 16:53] डॉ० लियाकत अली
पुष्प / मुक्तक
पुष्पो से सृंगार किया फिर राम ने सीता माता को समझाया।
तब मर्म आभूषण का बतलाया ज्ञान दिया और समझाया।।
नारी का गहना लज्जा है जलज शर्म हया हो आँखों में।
अच्छी बातें है कर्णफूल जो कानो में अमृत रस लाया।।
[8/29, 17:02] सरस जी
विधा~कविता (मुखड़ा रहित गीत)
8,6 मात्रा पर यति
प्रति चरण~14 मात्रा|
विषय~फूल
🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹
फूल रंग मन ,ठहरा है |
फूल गंध का ,पहरा है||
फूल सदा ,शुरुआत ,करे|
फूल प्रेम की ,बात करे||
फूल एक से ,एक मिले|
फूल देखके ,कली खिले||
फूल गुलाबी, क्या कहना|
फूल शराबी ,क्या कहना||
फूल कमल का, राष्ट्र प्रभा|
फूल देश की, प्रेम सभा||
फूल अर्चना, के सुन्दर|
फूल शब्द के, मन अन्दर||
फूल वर्ण चुन, भाव बने|
फूल धर्म की, नाव बने||
फूल पान की, मम पूजा|
फूल आप-सा, नहिं दूजा||
फूल प्रेम की, है भाषा |
फूल जीव की, परिभाषा||
फूल कली का, है बचपन|
फूल बीज का, बृद्धापन||
फूल शेष है,न्यारा है|
फूल सृष्टि का,प्यारा है||
फूल सदा प्रिय, गीत बना|
फूल प्रीत की, जीत बना||
🖊🖊🖊🖊🖊🖊🖊🖊
©दिलीप कुमार पाठक "सरस"
[8/29, 17:07] रवि रश्मि:
फूल
÷÷÷÷÷
फूल ने फूल कर कहा -- मैं फूल हूँ
मुरझा जाऊँ जब , तो बस धूल हूँ
फूल हूँ --
विहँसता हुआ , खिलखिलाता
मुस्काता हुआ , खुशियाँ लुटाता ।
काँटों में खिलकर भी सुख पाता हूँ
लोग आकर्षित होते मेरी ओर
गर्वित हो जाता हूँ ।
मुझे देख कर लोग खिलना सीखते हैं ,
मुस्कुराना , गुनगुनाना सीखते हैं
ख़ुशबू चहुँ ओर बिखराता हूँ
मुझे देख - देखकर जग को महकाना सीखते हैं
कर्मठ बन अपने गुणों को विकसित करना सीखते हैं
मैं औरों के लिए जीता हूँ
लोग भी परहित जीना सीखते हैं ।
मैं मंदिर में चढ़ाया जाता
वीरों पर हूँ अर्पित किया जाता ,
वीर देश की रक्षा कर
देश पर पर न्योछावर होना सीखते हैं ।
जो भी नेक काम करेगा , कर्तव्यों का पालन करेगा
सच कहता हूँ , फूल - सा ही वह महकेगा ।
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(C)रवि रश्मि ' अनुभूति '
29.8.2018 , 4:49 पी. एम.पर रचित ।
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