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परिवार (दिलीप कुमार पाठक 'सरस')

 परिवार ~एक पृष्ठभूमि 
शैली~व्यंग्यात्मक , सूत्रात्मक एवं उपदेशात्मक |
🌹🙏🏻🌹

🖊मानव जीवन की प्रथम पाठशाला कहा जाने वाला परिवार रीढ़ विहीन हो चुका है, इसमें साहब चौंकने वाली कोई बात नहीं है|आज भौतिकतावादी युग ने अनौपचारिकता की हत्या कर औपचारिकता को इतना बढ़ावा दिया है कि सारे रिश्ते नाते दम तोड़ते नज़र आते हैं |हम सब व्यक्तिवादिता की उस ऊँचाई पर पहुँच गये हैं, जहाँ से एक सोच जन्म लेती है और वह है आत्महत्या |स्वयं को ख़त्म करने के हमने सारे साधन जुटा लिए हैं, पल पल घुट रहे हैं, पल पल मर रहे हैं, पल पल अपनी मनमानी कर रहे हैं, पल पल एक दूसरे को नीचा दिखाने का मौका ढूँढ़ रहे हैं |साहब विकास की बात कौन करे?किसके विकास की बात करे?और क्यों विकास की बात करे? कैसे विकास की बात करे?स्वार्थ का अपच इतना बड़ गया है  ,कि पेट के साथ आँखों का भी पानी मर गया है |हाँ प्राचीनकाल के सम्बन्धों की दुहाई देते हुए, निज स्वार्थ को भुना रहे हैं| परिवार आज जीभ काढ़े पड़ा है ,अंतिम साँसों के साथ अलविदा भी कहने में बेबस बेचारा |

कभी परिवार हुआ करते थे, जिसे संयुक्त परिवार कहते हैं |पर अब परिवार औपचारिकता को पाल रहा है ,एकाकी हो गया है साहब|

पहले परिवार के किसी सदस्य पर जरा मुसीबत आयी, सब मिलकर आनन फानन में निपटा लेते थे|एक दबदबा होता था, एक रुतबा होता था परिवार का अपना, पर आज सब शून्य है |कोई किसी के साथ नहीं, कोई सहयोग नहीं, आपसी एकता का पोस्टमार्टम हो चुका है |

एकाकी परिवार दुर्मिल सवैया सा उछल कूद कर रहा है, बस संतान पालन हेतु|पर हम दे क्या रहे हैं निज संतान को, पेट दाई से छुपा नहीं है |भौतिकतावाद धमनियों में दौड़ रहा है, सम्बन्धवाद की धज्जियां उड़ रही हैं |

आज किसान की दीन हीन दशा का जिम्मेदार कौन? हमसे बेहतर आप जानते हैं, आपको पता है कि किसान हमारे देश की रीढ़ है |पर अब यह रीढ़ खोखली हो चुकी है |आज का किसान कहता है कि खेती में कुछ बचता ही नहीं, कर्ज लेना पड़ जाता है |परिवार टूटा, खेती रूठी ,आय को खा गयी शानवाद की खूँटी|बात नहीं है झूठी|परिवार टूटा, जमीन जायदाद के हिस्से हो गये, परिवार के सदस्यों में अपना-अपना घुस गया, अब साहब कहावत चरितार्थ हुई कि अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ता |पहले सब मिलकर करते थे, एक साधन से सबका काम सब चलाते थे, पर अब तो साधन भी जुटाने हैं, साधन ठहरे महँगे, तो किराये पर लेना है, सदस्यों के अभाव में मजदूरी भी क्रय करनी है |देशी खाद क्यों? महँगे कीटनाशक डालेंगे, ज़िन्दगी कुछ तो जहरीली हो| अब भैया हम तो हो गये आलसी, अब हमसे तो काम होगा नहीं, मजबूरी ने आलस्य को जन्म दे दिया, चस्का लग गया है |अब तो हर काम हमारा रुपया करेगा,तो बचेगा क्या खाक? अब जब हम मूछों वाले बनेंगे, करेंगे कुछ नहीं तो कर्ज तो लेना ही होगा, कर्जदार व्यक्ति अपने जीवन के आनंदमयी अनमोल क्षणों को स्वयं खो देता है फिर चिंता और घुटन जीवन को जर्जर कर देती है |इसीलिए आज के व्यक्ति की आयु निरन्तर हृास की ओर उन्मुख है |
एकाकी परिवार की एक और कहानी याद आ गयी~पति पत्नी और बच्चे|कभी कभी माता पिता को रखने की मजबूरी|माता पिता को बात बात झिड़कियाँ| पत्नी जब तब कहे कि बुड्ढा बुढ़िया सटिया गये हैं, अमरफल खाये हैं, मरने का नाम तक नहीं लेते|इस तू तू में में से तंग आकर बेचारे बक्त से पहले ही निकल लेते हैं |अब बचे बच्चे वह पढ़ने बाहर चले गये, पति कमाने और पत्नी घर की दीवारों से या पड़ोसियों से सिर धुनती रहती है, किसी को किसी से बात करने की फुर्सत नहीं, और कभी मिल भी गयी तो गिले शिकवे में समय गुजर गया, बात और बड़ी तो फिर ताने जो कि लड़ाई के बाद मतभेद में बदल जाते हैं, अब साहब कौन किससे क्या बात करे?सो सब करवट बदल उधेड़बुन करते करते सो जाते हैं, सम्बन्ध अन्दर ही अन्दर रो जाते हैं |

एक और ज़िन्दगी है साहब, चकाचौंध की, जहाँ धूर्तता के दिग्दर्शन होते हैं |बड़े समझदार हैं, इनके घुले सत्तू जो खाता है, इन्हें बस वही जान सकता है |इनका जीवन सबसे ज्यादा खोखला होता है, दूसरों पर जीते हुए भी अपने को आत्मनिर्भर दिखाते हैं,यही इनके जीने की कला है|वैभव इन्हीं के हाथों का खिलौना है|

पर उपदेश कुशल बहुतेरे ~वाली कहावत चरितार्थ न होने लगे, इसलिए हम स्वयं को देखें|जो करना है स्वयं को आदेशित करें|अभी कुछ नहीं बिगड़ा, अभी बहुत कुछ सुधारा जा सकता है |अपने क्रियाकलापों को एक स्वस्थ दिशा की ओर मोड़ना है, देखते ही देखते बदलाव नज़र आने लगेगा|वसुधैव कुटुम्बकम् कुछ दिनों बाद स्वयं कहने लगेगा कि लौट के बुद्धू घर को आये|अभी समय है सुबह का भूला यदि शाम को घर आ जाये तो उसे भूला नहीं कहते|


🖊🖊🖊🖊🖊🖊🖊🖊
©दिलीप कुमार पाठक "सरस"

Comments

  1. अति उत्तम उत्कृष्ट शैली में लिखा गया परिवार विषय पर आलेख आपके भाव एवं सकारात्मक को दिखाता है, आदर्श साहित्यकार की तरह उम्मीद को उपसंहार में दर्शाता है,गला घोंटती मानसिकता को खुली व स्वछन्द हवा की जरूरत है, जो आपसी सामन्जस्य एवं निस्वार्थ प्रेम व सेवा भाव से प्रदर्शित होगी| आदरणीय दिलीप कुमार पाठक सरस जी के ऐसे हृदय को झकझोर देने वाले आलेख के लिए जितनी बधाई दी जाए व कम ही है, ऐसे लेखों की समीक्षा निशब्द कर देती है| जरूरत है केवल ऐसी सशक्त मानसिकता को प्रसारित करने की |
    डॉ० राहुल शुक्ल'साहिल'प्रयागराज,उ०प्र०

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