गीत भ्रान्ति नहीं अनुभूति थी मेरी क्यूं तन्द्रा में सोती है एक दिन मेरे मन मे आया कविता कैसे होती है धुआँ देखी ज्वाला देखी उभयादिक् सम बेला देखी अमर्त्य आग की मर्त्य जलन मे जलती जीवन लीला देखी उफनाती जिज्ञासा लहरे मन में ही क्यूं उठती है एक दिन मेरे मन में आया कविता कैसे होती है ईश्वर से जग भिन्न नहीं गोचर जगती से जाना इसी अपावन दृश्य में देखा पावन का ताना-बाना *गंगा* जैसी पावन नदियाँ क्यूं नाले को ढोती है एक दिन मेरे मन में आया कविता कैसे होती है शिखर मौन है देखा मैने झरना देखा गरज रहा ज्योति छिपा है सघन कुँज में तम का देखा कहर यहाँ आज प्रकृति को देखा मैने छिप-छिप के वो रोती है एक दिन मेरे मन में आया कविता कैसे होती है इतने से मन नहीं भरा थी जीवित साकार खड़ी कष्ट भरी कविता क्यूं होती बात यहीं थी बहुत बडी जब भूखे अपने बच्चे को माँ उर लिपट
जितना भी चाहता हूं, सब मिल ही जाता है, अब दुख किस बात का ॽ